बहादुर बाला के हौसले का सम्मान......
एवरेस्ट से भी ऊंचे हैं इरादे.....
नहीं भूलती वह काली रात
कॉलेज के बाद मैंने सीआइएसएफ में जॉब के लिए आवेदन किया था और वहीं इंटरव्यू देने के लिए 11 अप्रैल 2011 को लखनऊ से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठी थी। भीड ज्यादा होने की वजह से जनरल बोगी में मुझे दरवाजे के पास सीट मिली थी। वहीं तीन-चार लडके खडे थे। उन्होंने मेरे गले का चेन खींचने की कोशिश की और विरोध करने पर मुझे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया। वह दृश्य याद कर के आज भी मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं। उस वक्त तकरीबन रात के दो-ढाई बज रहे होंगे। इतनी चोट के बावजूद मैं पूरे होश में थी। जब मैं गिरी थी, उसी वक्त बगल से दूसरी ट्रेन गुजर रही थी, जो मेरे बाएं पैर पर चढ गई। जब मैंने उठने की कोशिश की तो देखा कि मेरा बायां पैर थाईज के पास से कट कर जींस के बाहर निकल आया था। खुद को बचाने के लिए मैं पटरियों के बीच की खाली जगह में सीधी लेट गई। जब भी मुझे ट्रेन की आवाज सुनाई देती तो अपने हाथों को कटने से बचाने के लिए मैं उन्हें ऊपर उठा लेती। इस बीच कई बार ट्रेनें मेरे ऊपर से गुजरीं।
जब भी कोई ट्रेन मेरे करीब पहुंचती तो उसके भयंकर शोर से मेरी सांसें थम जातीं। वो तीन घंटे मेरे लिए युगों समान थे। सुबह छह बजे के आसपास गांव वालों ने मुझे देखा और वहां से उठा कर बरेली जिला अस्पताल ले गए। उस वक्त भी मैं पूरे होश में थी, उनके पूछने पर मैंने उन्हें अपने घर का फोन नंबर भी बताया। वहां डॉक्टरों ने सबसे पहले मेरे आधे कटे पैर को सर्जरी द्वारा शरीर से अलग किया, वरना इन्फेक्शन की वजह मेरी जान को खतरा हो सकता था। मेरा सिर फटा हुआ था, रीढ की हड्डी और कमर में तीन-तीन फ्रैक्चर थे। इसके अलावा दाएं पैर और हाथ में भी फ्रैक्चर था। वह छोटा अस्पताल था। इसलिए मुझे वहां से लखनऊ लाया गया, लेकिन मेरी गंभीर हालत को देखते हुए मुझे एयर एंबुलेंस से दिल्ली भेज दिया गया। वहां मुझे एम्स के ट्रॉमा सेंटर में लगभग चार महीने तक रखा गया.......