विवशता या दिखावा :........
रात में बिस्तर पर सोने जाता हूँ तो ये सोचकर की सुबह जल्दी उठना है। कई बार आधी रात में ही नींद खुल जाती है और घडी देखकर ख़ुशी मिलती है कि अरे अभी तो आधी रात बांकी है। पर उतना ही दुखी तब होता हूँ जब सुबह फिर घडी देखता हूँ। कई बार बिस्तर पर पड़े-पड़े झपकियाँ लेता हूँ और इसी क्रम में आधा घंटा लेट हो जाता हूँ ।
बिस्तर से उठते ही मशीन बन जाता हूँ, टाइमिंग मशीन। एक बार चाबी दिया तो एक घंटे के भीतर ही सार काम निबटा के ऑफिस पंहुचकर ही इंसानी रूप में आ पाता हूँ यानि रिलैक्स महसुस करता हूँ । पर वो भी क्षणिक मात्र, जब तक की सीनियर्स या बॉस नहीं आए हो । उनके आते ही फिर खुद को चाबी देकर मशीन बन जाता हूँ । फिर काम, काम और सिर्फ काम। थोड़ी सी ख़ुशी लंच टाइम में तब मिलती है, जब सभी कलिग (सहयोगी) एकसाथ बैठते हैं। खाना से ज़्यादा तो गप्पे मारकर खुद को तरोताज़ा महसूस करता हूँ।
सबसे ज्यादा रिफ्रेशमेंट तो तब होती है जब सभी लोग काम के प्रेशर में शान्ति से काम कर रहे होते हैं और जिसका काम सफलतापूर्वक हो गया हो वो अचानक से किसी की खिचाई करे और सारे कलिग के चेहरे पर ख़ुशी खिल उठे। ओह्फ़— सच में– कॉलेज के दिन याद आ जाते है। पर उतनी ही तकलीफ तब होती है जब सीनियर आकर आँखे दिखाए। ओह्फ्फ़–! तब तो ज़िन्दगी, जहन्नुम लगने लगती है।