29-12-2013, 10:38 AM
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Re: लौह-ओ-कलम (स्याही और कलम)
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांगमुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था के तू है तो दरखशां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दह्र का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सवात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूं न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक़ बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-बजा बिकते हुए कूचाओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीब बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
Last edited by rajnish manga; 23-04-2014 at 01:02 PM.
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