View Single Post
Old 31-01-2011, 09:24 PM   #7
Kumar Anil
Diligent Member
 
Kumar Anil's Avatar
 
Join Date: Nov 2010
Location: लखनऊ
Posts: 979
Rep Power: 25
Kumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud of
Default Re: प्यार और दोस्ती क्या है

Quote:
Originally Posted by abhay View Post
प्यार को बयां करना जितना मुश्किल है महसूस करना उतना ही आसान है। आपको प्यार कब, कैसे और कहां हो जाएगा आप खुद भी नहीं जान पाते। वो पहली नज़र में भी हो सकता है और हो सकता है कि कई मुलाकातों के बाद भी।

प्रेम तीन स्तरों में प्रेमी के जीवन में आता है। चाहत, वासना और आसक्ति के रूप में। इसके अलावा प्रेम से जुड़ी कुछ और बातें भी हैं -

प्रेम का दार्शनिक पक्ष-
प्रेम पनपता है तो अहंकार टूटता है। अहंकार टूटने से सत्य का जन्म होता है। जहां तक मीरा, सूफी संतों की बात है, उनका प्रेम अमृत है।

अन्य रिश्तों की तरह ही प्रेम में भी संमजस्य बेहद ज़रूरी है। आप यदि बेतरतीबी से हारमोनियम के स्वर दबाएं तो कर्कश शोर ही सुनाई देगा, वहीं यदि क्रमबद्ध दबाएं तो मधुर संगीत गूंजेगा। यही समरसता प्यार है, जिसके लिए सामंजस्य बेहद ज़रूरी है।

प्रेम का पौराणिक पक्ष- प्रेम के पौराणिक पक्ष को लेकर पहला सवाल यही दिमाग में आता है कि प्रेम किस धरातल पर उपजा-वासना या फिर चाहत....? माना प्रेम में काम का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन महज वासना के दम पर उपजे प्रेम का अंत तलाक ही होता है। जबकि चाहत के रंगों में रंगा प्यार ज़िंदगीभर बहार बन दिलों में खिलता है, जिसकी महक उम्रभर आपके साथ होती है।
बहुत सुन्दर पंक्ति है कि प्यार को महसूस करना जितना आसान है बयां करना उतना ही मुश्किल । प्रेम समर्पण है जबकि वासना भोग है । मीरा ने कृष्ण को अपना अधीश मानकर प्रेम किया । आत्मा ने अपना सर्वस्व लुटाकर परमात्मा से प्रेम किया , अकिँचन बन । पाने की चाह नहीँ केवल उसमेँ विलीन होने की कामना । सूफियाना अंदाज भी कुछ ऐसा ही था । इनके प्रेम मेँ भक्ति की प्रधानता थी ।
आपने हारमोनियम का उदाहरण दिया । वस्तुतः देह से देह का मिलन ही कर्कश स्वर उत्पन्न करता है । प्रेम तो स्वयं ही संगीत है । कभी कलकल करते निर्झर झरने का संगीत सुनिये । ठीक ऐसे ही प्रेम मेँ मदहोश करने वाला संगीत फूटता है । तभी तो प्रेमी अपने मैँ को छोड़कर अपनी प्रेमिका के साथ तादात्म्य स्थापित करता है । जितना वो अपने मैँ को छोड़ता चला जाता है उतना ही अपनी प्रेमिका के साथ एकाकार होता जाता है । उसकी यही क्रमबद्धता उसकी हारमोनियम से मधुर संगीत पैदा करती है । जिसके आलम मेँ साधक डूब जाता है ।
आपने वासना को प्रेम का पर्याय बताया जिससे मैँ रंचमात्र भी सहमत नहीँ । इसे आकर्षण की संज्ञा से विभूषित करना बेहतर होगा । इस आकर्षण के वशीभूत हम देह को साध्य मान बैठते है और कलंकित करते हैँ प्रेम को जिसे तो बस और बस आत्मा की दरकार है । तभी तो वो गहराईयोँ मेँ उतरकर आत्मा से मिलता है और ये वासना मिश्रित आकर्षण ऊपर ही ऊपर देह तक सीमित रह जाता है ।
__________________
दूसरोँ को ख़ुशी देकर अपने लिये ख़ुशी खरीद लो ।
Kumar Anil is offline   Reply With Quote