Re: इधर-उधर से
इसके बाद तो अशफाक और बिस्मिल में होड़-सी लग गयी एक से एक उम्दा शेर कहने की। परन्तु अगर ध्यान से देखा जाये तो दोनों में एक तरह की टेलीपैथी काम करती थी तभी तो उनके जज्बातों में एकरूपता दिखायी देती है। मिसाल के तौर पर चन्द मिसरे हाजिर हैं: बिस्मिल का यह शेर-
"अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझतेहैं।
मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?"
अशफाक की इस कता के कितना करीब जान पड़ता है-
"मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?
वतन हमारा रहे शाद काम और आबाद, हमारा क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे।।"
मुल्क की माली हालत को खस्ता होता देखकर लिखी गयी बिस्मिल की ये पंक्तियाँ-
"तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसदसे थी,
उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।"
अशफाक के इस शेर सेकितनी अधिक मिलती हैं-
"वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ! हाँ! उसी उजड़े गुलिश्ताँ की।"
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 28-03-2014 at 07:39 PM.
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