Re: मनोरंजक लोककथायें
सबसे पहले रास्ते में एक पीपल का पेड़ मिला. उसने पेड़ से सब घटना कह सुनाई. पेड़ ने कहा कि मैं भी सब यात्रियों को कड़ी धूप में छाया देता हूँ, लेकिन इस पर भी यात्री अपने पशुओं को मेरे पत्ते तोड़ कर खिला देते हैं, मेरी छाल पर अपना नाम गोद देते हैं. मुझे पानी तक नहीं देते. अतः जो हो रहा है उसे स्वीकार कर लो.
आगे चल कर उसे रहट पर कुएं से पानी निकालती एक भैंस दिखाई दी. उसने भैंस को अपना दुखड़ा सुनाया. भैंस ने उससे कहा कि संसार का दस्तूर ही ऐसा है. मैं भी जब तक दूध देती रही मुझे हरी दूब और खल-चरी खिलाते रहे. अब मैं दूध नहीं देती तो मुझे पानी निकालने के काम पर लगा दिया गया है और खाने के लिये भी रूझा-सुखा ही दिया जाता है. इसलिये जो नियति है उसे स्वीकार कर लेना चाहिये.
यही बात उसने अपने सामने आई सड़क से भी कही. सड़क ने भी अपनी सेवा भावना का ज़िक्र किया और कहा कि मानव अपने स्वार्थवश मेरा ध्यान नहीं रखता. इसी कारण हर समय मेरी दुर्दशा बनी रहती है. तुम भी अब अपनी होनी को स्वीकार कर लो.
तीन जगह विचार विमर्श करने के बाद ब्राह्मण दुखी मन से बाघ के पास लौटने लगा. अब उसे विश्वास हो गया था कि उसके बचने का कोई उपाय नहीं है और बाघ उसे खा जायेगा. इसी उधेड़-बन में वह चला जा रहा था कि एक सियार ने उसे रोकते हुये पूछा, “भाई तुम क्यों उदास हो? क्या तुम्हारे ऊपर कोई पहाड़ टूट पड़ा है. ऐसा लगता है जैसे किसी मछली को जल से बाहर फेंक दिया गया हो.”
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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