Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
एक मज़ाहिया ग़ज़ल
फैज़ मुहम्मद कुरैशी
मैं हूँ बीवी से परेशान तुम्हें क्या मालूम
है मुसीबत में मेरी जान तुम्हें क्या मालूम
जब से शादी हुई घर के न रहे घाट के हम
मर गये दिल के सब अरमान तुम्हें क्या मालूम
घर से बन ठनके न यूँ रात को निकलो खानम
राह में होगा कोई खान तुम्हें क्या मालूम
पान मुंह में है अँधेरा है कहाँ ढूंढोगे
कहाँ रखा है उगलदान तुम्हें क्या मालूम
वो जो शैतान था बैठा है सरेंडर कर के
आदमी हो गया शैतान तुन्हें क्या मालूम
फर्माबरदार रहे, ज़ुल्म सहे, कुछ न कहे
अच्छे शौहर की है पहचान तुम्हें क्या मालूम
सच तो कहते हैं मगर जान पे जब आती है
‘फैज़’ बन जाते हैं अनजान तुम्हें क्या मालूम
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
|