Re: कोलुशा > मैक्सिम गोर्की
तभी उसके पिता को उन्होंने जेल से छोड़ा और गाड़ी में बैठाकर उसे घर लाये। जेल में उसे लकवा मार गया था। वह वहाँ पड़ा मेरी ओर देखता रहा। उसके चेहरे पर एक कुटिल-सी मुस्कान खेल रही थी। मैं भी उसकी ओर देख रही थी और मन ही मन सोच रही थी – ‘तुमने ही हमारा यह हाल किया है, और तुम्हारा यह दोज़ख़ मैं अबकहाँ से भरूँगी? एक ही काम अब मैं तुम्हारे साथ कर सकती हूँ, वह यह कि तुम्हें उठाकर किसी जोहड़ में पटक दूँ।’ लेकिन कोलुशा ने जब उसे देखा तो चीख़ उठा, उसका चेहरा धुली हुई चादर की भाँति सफ़ेद पड़ गया और उसके गालों पर से आँसू ढुरकने लगे। ‘यह इन्हें क्या हो गया है, माँ?’ उसने पूछा। ‘यह अपने दिन पूरे कर चुका’, मैंने कहा।
और इसके बाद हालत बद से बदतर होती गयी। काम करते-करते मेरे हाथ टूट जाते, लेकिन पूरा सिर मारने पर भी बीस कोपेक से ज़्यादा न मिलते, सो भी तब, जब भाग्य से दिन अच्छे होते। मौत से भी बुरी हालत थी, अक्सर मन में आता कि अपने इस जीवन का अन्त कर दूँ। एक बार, जब हालत एकदम असह्य हो उठी, तो मैंने कहा – ‘मैं तो तंग आ गयी इस मनहूस जीवन से। अच्छा हो अगर मैं मर जाऊँ – या फिर तुम दोनों में से कोई एक ख़त्म हो जाये!’ – यह कोलुशा और उसके पिता की तरफ़ इशारा था। उसका पिता केवल गरदन हिलाकर रह गया, मानो कह रहा हो – ‘झिड़कती क्यों हो? ज़रा धीरज रखो, मेरे दिन वैसे ही करीब आ लगे हैं।’ लेकिन कोलुशा ने देर तक मेरी ओर देखा, इसके बाद वह मुड़ा और घर से बाहर चला गया।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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