Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
ऐ बुल्ले शाह! मैं क्या जानूं मैं कौन हूं?
साधना की एक ऐसी अवस्था आती है, जिसे सन्त बेखुदी कह लेते हैं, जिसमें उसका अपना आपा अपनी ही पहचान से परे हो जाता है| इसीलिए बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं क्या जानूं कि मैं कौन हूं?
मैं मोमिन नहीं कि मस्जिद में मिल सकूं, मैं कुफ़्र के मार्ग पर चलने वाला भी नहीं हूं, न मैं पलीत (अपवित्र) लोगों के बीच पवित्र व्यक्ति हूं और न ही पवित्र लोगों के बीच अपवित्र हूं| मैं न मूसा हूं और फ़िरऔन भी नहीं हूं| इस प्रकार मेरी अवस्था कुछ अजीब है, मेरी मनोदशा न प्रसन्नता की है, न उदासी की है| मैं जल अथवा स्थल में रहने वाला भी नहीं हूं, ना मैं आग हूं और पवन भी नहीं| मज़हब का भेद भी मैं नहीं पा सका| मैं आदम और हव्वा की सन्तान नहीं हूं, इसलिए मैंने अपना कोई नाम भी नहीं रखा है| न मैं जड़ हूं और जंगम भी नहीं हूं|
कुल मिलाकर कहूं तो मैं किसी को नहीं जानता| मैं बस अपने-आप को ही जानता हूं, अपने से भिन्न किसी दूसरे को मैं नहीं पहचानता| बेख़ुदी अपना लेने के बाद मुझसे बढ़कर सयाना और कौन होगा? बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं तो यह भी नहीं जानता कि भला वह कौन खड़ा है|
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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