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Originally Posted by sagar -
इन तीन लाइनों में बहुत कुछ लिख दिया हे सिकन्दर भाई ९० परसेंट लोगो का यही हाल होता हे ! बचपन तो खेल खेल में ही निकल जाता हे और जवानी आने में मस्ती में चूर हो जाता हे जवानी मोज मस्ती और अयासी में निकाल देता हे ! और जब बुढ़ापे कि तरफ कदम रखता हे तो उसे एहसास होने लगता हे कि उसने क्या गलत किया और क्या अच्छा किया ! फिर वह बुढ़ापे को देख कर रोने लगता हे ! फिर वह अपने किये दोषो को छिपा कर अच्छी अच्छी बाते करने लगता हे !ताकि उसका बुढ़ापा सही गुजरे लोग उसको अच्छा समझने लगे ! और उसके साथ अच्छा व्यवहार करे ! जिंदगी का एक कटु सत्य हे !
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सागर जी आपकी बात काफ़ी हद तक सही है लेकिन आज नई पीढ़ी के एक बहुत बड़े वर्ग के साथ उल्टा हो रहा है. इसका कारण है जिंदगी की रेस में आगे निकलने की होड़, इसे आप चूहा दौड़ या भेड़चाल बोल सकते है. इस बात को ३ ईडियट्स फिल्म में काफ़ी अच्छे से फिल्माया गया है.
“सारी उम्र हम मर-मर के जी लिए,
इक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो,”
सारी उम्र हम मर-मर के जी लिए,
इक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो……..2
Give me some sunshine,
Give me some rain,
Give me another chance,
I wana grow up once again………….2
“कंधों को किताबों के बोझ ने झुकाया,
रिश्वत देना तो खुद पापा ने सिखाया”
“99% मार्क्स लाओगे तो घड़ी, वरना छड़ी”
“लिख-लिख कर पड़ा हथेली पर अल्फ़ा, बीटा, गामा का छाला,
Consentrated H2SO4 ने पूरा………..पूरा बचपन जला डाला”
बचपन तो गया, जवानी भी गयी,
इक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो………2
सारी उम्र हम मर-मर के जी लिए,
इक पल तो अब हमें जीने दो, जीने दो……..
Give me some sunshine,
Give me some rain,
Give me another chance,
I wana grow up once again………….2