21-09-2014, 03:50 PM
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#16
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Re: प्रेम.. और... त्याग...
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Originally Posted by soni pushpa
रजत जी आपसे मेरा अनुरोध है, की आप इस विषय को दूसरी तरफ न ले जाएँ . मैंने इस लेख के आरंभ में ही पहली लाइन में लिखा है की प्रेम एक व्यापक शब्द है, किन्तु लोग आज इसका गलत अर्थ लेते हैं और अब ये भी कहूँगी की सिमित नही ये शब्द इतना , जितना साधारण जन समाज इसे लेता है क्यूंकि प्रेम के वश भगवन भी है, ये तो इतना व्यापक शब्द है और इतनी गहरी भावना है . आज सारे मानव समाज में सिर्फ प्रेम हो एक दूजे के लिए कोई कड़वाहट न हो दूजो की भलाई और दूजो के लिए त्याग की भावना यदिमानव मन में बस जय तो सोचिये आज ये दुनिया कितनी सुन्दर बन जाय. यदि प्रेम को सिर्फ एक परिवार या स्त्री पुरुष के संभंध तक सिमित कर दिया जय तो इसकी व्यापकता ही समाप्त हो जाएगी. फिल्मे देखकर या serials के प्रभाव में आकार हम इसको छोटा न बनाये और इसे बड़े पैमाने याने की विश्व व्यापी भावना बना दे ..तो सोचिये आज कही बम ब्लास्ट न होंगे, कोई युध्ध न होंगे सारी दुनिया सुख शांति से जीवन यापन करेगी . और मानव समाज का कितना विकास होगा सोचिये जरा आज जो धन युध्ध में लगाया जाता है , सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, वो व्यर्थ खर्च न होते और वो ही धन सब देशों के विकास में लगता और हम मानव आज कहाँ से कहा पहुचे होते . ये व्यापकता है इस प्रेम की ,मेरा ये ही कहना है की ये बहना विश्व्यापी बने न की एक परिवार तक सिमित रहे ये .. जानती हूँ की आप कहेंगे अब की किसी भी चीज की शुरुवात परिवार सेही होती है पर हाँ शुरूवात परिवार से जरुर हो, किन्तु ये भावना सिरफ़ वही आकर न रुक जाय बल्कि आगे बढे प्रेम. और सबमें भाईचारे की भावना पनपे ये चाहूंगी और मेरे इस शीर्षक पर बहस करने का ये ही उद्देश्य था ..
धन्यवाद रजत जी पवित्रा जी और रजनीश जी इस विषय पर इतना प्रकाश डालने के लिए किन्तु मेरा आप लोगो से अब भी ये ही एक अनुरोध रहेगा की इस विषय की व्यापकता को समझकर छोटे या बड़े परदे की बातें न लायें न ही किसी ईयर बुक को ...
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यहाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कारके साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं है’पर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?
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