Re: प्रेम.. और... त्याग...
सोनी जी, आपने बहुत अच्छा विषय चुना है, प्रेम और त्याग। इन दोनों ही शब्दों में बहुत गहराई है ,जिसकी व्याख्या शब्दों में करना बहुत मुश्किल है। ये दोनों एक -दुसरे के पूरक हैं। कई बार हम लगाव को ही प्रेम समझ बैठते हैं. हमें लगता है हम जिसे प्रेम करते हैं हम उसे पा लें लेकिन वो किसी और से प्रेम करता है तो हमें ईर्ष्या होती है ,और जहाँ ईर्ष्या होती है वहां प्रेम कभी नहीं हो सकता। प्रेम वो होता है जहाँ हम सामने वाले की ख़ुशी में दिल से खुश होते हैं ,चाहे वो हमसे प्रेम करे या न करे। प्रेम का सबसे बड़ा आदर्श श्री कृष्ण और ब्रज की गोपियाँ हैं। श्री कृष्ण जब ब्रज को और गोपियों को छोड़ कर चले गए थे ,गोपियों को पता था श्री कृष्ण अब उन्हें नहीं मिलेंगे तब भी उनका प्रेम श्री कृष्ण के लिए कभी कम नहीं हुआ.hum जिससे प्रेम करते हैं वो चाहे हमारे पास रहे या दूर हमारा प्रेम कभी कम नहीं होता। एक बेटा चाहे कितना नालायक हो ,अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम में भी छोड़ दे तो भी माँ-बाप अपने बच्चे को आशीर्वाद ही देते हैं ,उनका प्रेम बच्चे के लिए कभी कम नहीं होता।
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