Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
मिश्र बनाम चटर्जी
एक बार का किस्सा है। किसी गोष्ठी में अनेक साहित्यकार बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी। विषयों की विविधता थी। इसी गोष्ठी में प्रसिद्ध हिंदी कवि वीरेंद्र मिश्र भी बैठे थे और बंगाल के सुविख्यात कथाकार सुकुमार चटर्जी भी उपस्थित थे। चर्चा के एक दौर में चटर्जी महाशय ने मिश्रजी को छेड़ते हुए कहा, ‘मिश्रजी! पहले के जमाने में जो वेदपाठी ब्राह्मण थे, उन्हें वेदी कहा जाता था। दो वेदों के ज्ञाता द्विवेदी, तीन के त्रिवेदी और चारों वेदों के ज्ञाता चतुर्वेदी जैसे उपनामों का जन्म हुआ। जो पढ़ाने का काम करते थे, वे उपाध्याय कहलाने लगे और जो न ठीक से पढ़ पाते थे और न ही पढ़ा पाते थे, वे ‘मिश्र’ कहलाए अर्थात ये मिला-जुलाकर काम चलाते थे।’
मिश्रजी ने जब चटर्जी महाशय को अपना सार्वजनिक उपहास करते देखा तो इन शब्दों में करारा जवाब दिया, ‘पहले ब्राह्मण अपने इष्टदेव को पत्री या अर्जी लिखते थे, जैसे तुलसीदास ने ‘विनय पत्रिका’ लिखी। इस प्रकार अर्जी लिखने वाले लोग ‘बनर्जी’ कहलाए। जो लिखकर न देते हुए मुख से कह देते थे वे ‘मुखर्जी’ कहलाए और बिना सोचे-विचारे चट से कह देते थे वे ‘चटर्जी’ कहलाए।’ मिश्रजी की बात पर पूरी सभा हंस पड़ी और चटर्जी महाशय खिसिया गए।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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