Re: व्यक्तित्व के शत्रु
व्यक्तित्व के शत्रु
क्रोध आभार: हंसराज सुज्ञ
'मोह' वश उत्पन्न, मन के आवेशमय परिणाम को 'क्रोध' कहते है. क्रोध मानव मनका अनुबंध युक्त स्वभाविक भाव है. मनोज्ञ प्रतिकूलता ही क्रोध का कारण बनतीहै. अतृप्त इच्छाएँ क्रोध के लिए अनुकूल वातावरण का सर्जन करती है.क्रोधवश मनुष्य किसी की भी बात सहन नहीं करता. प्रतिशोध के बाद ही शांतहोने का अभिनय करता है किंतु दुखद यह कि यह चक्र किसी सुख पर समाप्त नहींहोता.
क्रोध कृत्य अकृत्य के विवेक को हर लेता है और तत्काल उसका प्रतिपक्षीअविवेक आकर मनुष्य को अकार्य में प्रवृत कर देता है. कोई कितना भी विवेकशीलऔर सदैव स्वयं को संतुलित व्यक्त करने वाला हो, क्रोध के जरा से आगमन केसाथ ही विवेक साथ छोड देता है और व्यक्ति असंतुलित हो जाता हैं। क्रोधसर्वप्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरे को. यह केवल भ्रम हैकि क्रोध बहादुरी प्रकट करने में समर्थ है, अन्याय के विरूद्ध दृढ रहने केलिए लेश मात्र भी क्रोध की आवश्यकता नहीं है. क्रोध के मूल में मात्रदूसरों के अहित का भाव है, और यह भाव अपने ही हृदय को प्रतिशोध से संचित करबोझा भरे रखने के समान है. उत्कृष्ट चरित्र की चाह रखने वालों के लिएक्रोध पूर्णतः त्याज्य है.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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