Re: व्यक्तित्व के शत्रु
महापुरुषों की दृष्टि में क्रोध
क्रोध को आश्रय देना, प्रतिशोध लेने की इच्छा रखना अनेक कष्टों का आधार है.जो व्यक्ति इस बुराई को पालते रहते है वे जीवन के सुख और आनंद से वंचित रहजाते है. वे दूसरों के साथ मेल-जोल, प्रेम-प्रतिष्ठा एवं आत्म-संतोष सेकोसों दूर रह जाते है. परिणाम स्वरूप वे अनिष्ट संघर्षों और तनावों के आरोहअवरोह में ही जीवन का आनंद मानने लगते है. उसी को कर्म और उसी कोपुरूषार्थ मानने के भ्रम में जीवन बिता देते है.
क्रोध को शांति व क्षमा से ही जीता जा सकता है. क्षमा मात्र प्रतिपक्षी केलिए ही नहीं है, स्वयं के हृदय को तनावों और दुर्भावों से क्षमा करके मुक्त करना है. बातों को तूल देने से बचाने के लिए उन बातों को भुला देना खुद परक्षमा है. आवेश की पद्चाप सुनाई देते ही, क्रोध प्रेरक विचार को क्षमा करदेना, शांति का उपाय है. सम्भावित समस्याओं और कलह के विस्तार को रोकने काउद्यम भी क्षमा है. किसी के दुर्वचन कहने पर क्रोध न करना क्षमा कहलाता है।हमारे भीतर अगर करुणा और क्षमा का झरना निरंतर बहता रहे तो क्रोध कीचिंगारी उठते ही शीतलता से शांत हो जाएगी. क्षमाशील भाव को दृढ बनाए बिनाअक्रोध की अवस्था पाना दुष्कर है.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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