Re: मुहावरों की कहानी
चवन्नी की याद में
भारत भी अब सरपट दौडऩे वाली मुद्रास्फीति की चपेट में आया देश है. इस दौर में छोटे सिक्कों की क्या बिसात, अब यहां चवन्नी की फिक्र किसको है. सच तो यह है कि चवन्नी जब चलन में था, तब भी आखिरी कुछ समय में भिखारी तक इसे देखकर नाक-भौं सिकोड़ लेते थे. वैसे असलियत तो यह है कि चवन्नी तो क्या अठन्नी को भी बाजार से बाहर हुए अरसा बीत गया. हममें से शायद ही किसी को याद हो कि आखिरी बार चवन्नी का इस्तेमाल क्या खरीदने के लिए, कब किया था.
हां, घर के बूढ़े-बुजुर्ग जरूर यह कह कर सस्ती के दौर का जिक्र करते सुनाई दे जाते हैं कि उनके जमाने में तो शुद्घ देसी घी भी चार आने का सवा किलो मिलता था. वैसे नमक, चायपत्ती की पुडिय़ा, माचिस और पोस्टकार्ड के साथ तो चवन्नी का रिश्ता अलग-अलग कालखंडों में इनसे खास तौर पर जुड़ा रहा है. पर अब तो यह अतीत की बात हो चली है. भारत में चवन्नी का दर्शन करने के लिए अब हमें भले ही संग्रहालय का रूख करना पड़े, लेकिन अमेरिका में इकन्नी या डॉलर का शतांश, सेंट अभी भी खूब चलन में है. वैसे जिस चवन्नी को आज सरकार ने अतीत का हिस्सा बना दिया है, उसका संबंध राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से भी जुड़ा रहा है. आजादी के दौर में एक नारा खूब मशहूर हुआ था- 'खरी चवन्नी चांदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की.'
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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