Re: 'बाकर' मेंहदी की ग़ज़लें
वो रिंद क्या के जो पीते हैं बे-ख़ुदी के लिए
सुरूर चाहिए वो भी कभी कभी के लिए
ये क्या के बज़्म में शमएँ जला के बैठे हो
कभी मिलो तो सर-ए-राह दुश्*मनी के लिए
अवध की शाम-रफ़ीकों को मह-जबीनों को
हर इक छोड़ के आए थे बम्बई के लिए
मगर ये क्या के ब-जु़ज़ दर्द कुछ हमें न मिला
अजीब शहर है ये एक अजनबी के लिए
हज़ार चाहें न छूटेगी हम से ये दुनिया
यहीं रहेंगे मोहब्बत की बे-कसी के लिए
कोई पनाह नहीं कोई जा-ए-अमन नहीं
हयात जुहद-ए-मुसलसल है आदमी के लिए
ये कह रहा है कोई अपने जाँ-निसारों से
कुछ और चाहिए अब रस्म-ए-आशिक़ी के लिए
कहाँ कहाँ न पुकारा कहाँ कहाँ न गए
बस इक तबस्सुम-ए-पिहाँ की रौशनी के लिए
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