Re: कुतुबनुमा
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 1
देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अज़ब चीज़ है, विशेषकर ख़बरिया चैनल। किसी ने कुछ कहा, ये फ़ौरन उस पर एक तमगा चस्पां कर देंगे - विवादित। मेरे मन में सवाल अक्सर उठता है - हुज़ूरे-आला, आपका काम सूचना पहुंचाना है या तमगे बांटना ? चार खम्भों में से एक खम्भा आपको सौंपा गया था और आपने तो स्वयं चारों खम्भे हथिया लिए हैं।
एक चैनल के कार्यक्रम का ही नाम है 'थर्ड डिग्री', मानो आप टीवी स्टूडियो में नहीं हिटलर के किसी प्रताड़ना शिविर में सादर आमंत्रित किए गए हों। काफी समय पहले की बात है, इसी शो में एक बाबा का इंटरव्यू लेते तीन डिग्रीधारियों को देखा। शायद जवाब देते थक चुके बाबा ने कहा - मैं आपसे एक सवाल पूछूं।
एक डिग्रीधारी फ़ौरन बोली - नहीं, यहां सवाल हम पूछते हैं। आप नहीं पूछ सकते।
मैंने मन में सोचा - वाह, जनाबे-आला ! इस पर तुर्रा यह कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं। … और रिमोट का बटन दबा कर चैनल बदल लिया।
एक और वाकया याद आता है। देश में किसी को भगवान मानने - न मानने पर विवाद चल रहा था। एक धर्माचार्य ने उनके ख़िलाफ़ ऐलान कर दिया था। ज़ाहिर है, ऐसा मौक़ा कोई ख़बरिया चैनल गंवा दे, तो उसके पेट में अफ़ारा होने लगता है।
क्रोधी स्वभाव में ऋषि दुर्वासा से होड़ करती प्रतीत होती महिला कार्यक्रम प्रस्तोता थीं। उन्होंने शुरुआत में ही धर्माचार्य को ललकारा - वे कौन होते हैं, मुझे यह बताने वाले कि मैं किसकी पूजा करूं या नहीं करूं। उन्हें 'उनके' इतने सारे अनुयायियों की भावनाओं की भी परवाह नहीं है।
मैंने अक्सर देखा है कि इडियट बॉक्स के ऐसे बहस-मुबाहिसों में आने वाले या तो दबाव में आ जाते हैं या उनके विचारों को कटी पतंग बना दिया जाता है। मेरे मन में प्रश्न उठा कि अगर ऐसा नहीं है, तो 'लेडी दुर्वासा' से किसी ने यह पूछने की हिमाकत क्यों नहीं की कि 'मोहतरमा, किसी परम्परा पर टिप्पणी करने से पहले उसके महत्त्व के विषय में अवश्य मालूमात और उस पर विचार कर लेना चाहिए। फिर, जो आरोप आप 'उधर' लगा रही हैं, वही कार्य यानी भावनाएं आहत करने का, क्या आप स्वयं नहीं कर रहीं ? ख़ैर, मैं तो स्टूडियो में था नहीं, तो कुछ और देख लेने के सिवा कर भी क्या सकता था ?
ताज़ा उदाहरण है 'अय भौं पू' चैनल का। मुझे लगता है कि इसके कारनामे तो कभी न कभी इतिहास की अमर पुस्तक में स्वर्णाक्षरों में दर्ज़ किए जाएंगे। यह सब मैंने इसलिए लिखा कि इस चैनल पर एक समाचार देखा। शपथ लेने वाले मंत्री के एक बयान को यह चैनल बेतुका बता रहा था।
मसला यह था - छत्तीसगढ़ के एक विधायक महोदय ने सूट-बूट पहन कर मंत्री पद की शपथ ग्रहण की। इस पर अपनी आदत से मज़बूर कांग्रेस ने सवाल उठाए।
मीडिया ने प्रतिक्रिया पूछी, तो नए-नवेले मंत्री महोदय ने जवाब दिया - ये सामान्य कपड़े हैं। ये नहीं पहनूं, तो क्या नंगा होकर शपथ ग्रहण करूं ?
अब आप खुद सोचिए - यह जवाब बेतुका है अथवा शपथ लेने वाले के कपड़ों पर उठाए गए सवाल ? क्या यह इतिहास का पहला अवसर था, जब किसी ने सूट पहन कर शपथ ग्रहण की ? नहीं, तो इस ख़बरिया चैनल ने उस पर सवाल उठाने वालों से क्यों नहीं पूछा कि आप ऐसा बेतुका मुद्दा क्यों छेड़ रहे हैं ? और नहीं पूछा, तो स्वयं न्यायाधीश बन जाने की जल्दबाज़ी क्यों की ? आप सूचना देते, फैसला जनता को करने देते कि बेतुका सवाल था या जवाब ?
आप क्या सोचते हैं ?
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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