Re: कुतुबनुमा
Quote:
Originally Posted by dark saint alaick
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 1
देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अज़ब चीज़ है, विशेषकर ख़बरिया चैनल। ....
......इस ख़बरिया चैनल ने उस पर सवाल उठाने वालों से क्यों नहीं पूछा कि आप ऐसा बेतुका मुद्दा क्यों छेड़ रहे हैं ? और नहीं पूछा, तो स्वयं न्यायाधीश बन जाने की जल्दबाज़ी क्यों की ? आप सूचना देते, फैसला जनता को करने देते कि बेतुका सवाल था या जवाब ?
आप क्या सोचते हैं ?
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ख़ुश'आमदीद, अलैक जी. आपने जो परिदृश्य सामने रखा उसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं है. आम तौर पर टीवी के एंकरगण पूर्वाग्रह से ग्रस्त नज़र आते हैं और बहस जैसे जैसे आगे बढ़ती है, इसका प्रमाण भी मिलता जाता है. नतीजा यह होता है कि वे जाने-अनजाने निर्णायक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं.
टीवी पर आज दर्जनों न्यूज़ चैनल अपने अपने ढंग से देश की समस्याओं का हल ढूँढने में व्यस्त नज़र आते हैं. बहुत से चैनल तो नयी समस्यायें ढूँढने और उनको परोसने में ही व्यस्त रहते हैं. किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये इनके पास सबसे सरल रास्ता होता है, बहस करवाने का. यहाँ पर यह हाल होता है कि प्रतिभागी एक दूसरे का गला पकड़ने को तैयार दिखाई देते हैं. अंत में थर्ड अंपायर की तरह सूत्रधार ही सारी बहस पर निर्णय सुना देता है.
पिछली महाशिवरात्रि के अवसर पर एक मुस्लिम विद्वान् (?) ने घोषणा कर दी कि हिन्दुओं के देवता शिव जी ही मुसलमानों के पैगम्बर हैं. फिर तो हर चैनल में इसी विषय पर बहस-मुबाहिसे शुरू हो गये. मेरे कहने का अर्थ यह है कि कई बार ख़ामख्वाह के मुद्दे गढ लिए जाते हैं जिनमे कोई तंत नहीं होता.
अभी पिछले दिनों एक टीवी बहस के दौरान आप पार्टी के नेता आशुतोष बीजेपी के प्रवक्ता की बातों पर पूरा समय हँसते रहे. उन्हें एंकर ने एक बार भी ऐसा न करने से नहीं रोका. अभी कल ही एक बहस में किसी रिपोर्ट पर चर्चा चली तो बीजेपी के नुमाइंदे ने जानना चाहा कि यह रिपोर्ट किसने जारी की है तो उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया गया. यदि इसी प्रकार की बे-सिर-पैर की बहस करवानी है तो उसका उद्देश्य क्या हुआ?
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 05-06-2015 at 06:15 PM.
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