प्रेम नही है बस का!
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का,
क्युं तुमने मजाक बना के रक्खा है बेबस का?
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का,
जिस दिन से डेपो पर देखी, कन्या एक कंवारी
जारि है अपनी भी तब से उसकी बस में सवारी!
कभी तो देखेगी मुड के, आधार है ईस ढाढस का...
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का,
नाम पुछै का डर...कितना लागे मै ही जानुं ।
उस बस के नंबर से मै उस लडकी को पहेचानुं,
सबके आगे ईसी डर को नाम दिया आलस का...
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का,
सोचता हुं मै की एसा काश हो तो अच्छा
प्रेमीयों लिए, बस का पास हो तो अच्छा,
चार आने हो गए, जो रस्ता था पैसे दस का,
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का।
एक दिन वह लडकी, कोई लडका संग ले आई,
बस हडताल मेरे सारे सपनों को करवाई।
बहुत दिनों के बाद ये जाना...भाई था वो उसका!
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का।
अब जल्दी ही उसको मेरे मन की बात बताउंगा,
पब्लिक पीटे या कंडक्टर, बिलकुल ना घबराउंगा।
बस-रानी वरदान दो मुझको थोडे से साहस का!
प्रेम नही है बस का, यह प्रेम नही है बस का।
दीप (९-७-१५)
आज फोरम पर कुछ एसा घटा जिसने मुझे हास्यकविता लिखने को प्रेरित किया! मैने यह भी सोचा की पुराने जमाने का काव्य बनाउं। सो प्रस्तुत है पुराने जमाने की ताज़ा हास्य कविता, जो अभी अभी पुरी हुई है और एक्स्परिमेन्टल है!
कविता के काल, अदाकार और अदाकारा का अंदाजा आप तसवीर से लगा सकते हो ।