12-07-2015, 01:35 PM
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Re: ये कैसी भक्ति है ?
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Originally Posted by soni pushpa
सच कहूँ तो हम इंसान हमेशा भगवान से दया की भीख मांगते रहते हैं उनका आशीर्वाद चाहते हैं किन्तु सच तो ये है की हम इंसान ही कभी भगवान् की मूर्तियों पर जरा सी भी दया नहीं करते
...... स्नान इतना भयंकर होता है की लगता है की स्नान नहीं ये कोई ..बवंडर हो ....
...... भगवांन की मूर्ति पर चन्दन को एइसे मला जाता है मानो पत्थर पर चटनी बनाई जा रही हो.
...... डब्बे सब मंदिर में इस तरह से फेंकते हैं लोग मनो मंदिर न हुआ कूड़ा दान हुआ ... और .......एकदूजे को धक्के देकर हर कोई पहले पुण्य कमाना चाहता था
..... सबके ऊपर से शिवलिंग पर नारियल फेकना शुरू का दिया तब मेरे मन में एक सवाल उठा ये किसी भक्ति है?
..... हम ये क्यूँ नहीं देख पाते की जिस मूर्ति पर हम इस तरह के अत्याचार कर रहे हैं उसकी प्राणप्रतिष्ठा की जाती है और जब हम एईसी पूजा करते हैं तब हम पुण्य के बदले पाप तो नहीं कर रहे ये हमें जरुर सोचना चहिये
...... आपको यदि शिवलिंग पर दूध चढ़ाना ही है तो थोडा सा भगवन पर चढ़कर बाकि का गरीब के बच्चे को दें . मंदिरों में जब देखे की वहां फ्रूट्स याने की फलों का ढेर लग गया है तो आप आपने लाये फल गरीबों में बाटे..क्यूंकि वो जिन्दा भगवन ह तो है उसमे परमात्मा ह का ही वास है आपके पास यदि पैसा ज्यदा है तो किसी जरूरतमंद विद्यार्थी को फ़ीस के पैसे दें ताकि उसका भविष्य उज्जवल हो ...
अंत में इतना कहूँगी की पूजा एइसे कीजिये की जिसमे अन्धविश्वास का कोई स्थान न हो ...
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मुझे आपके निरीक्षण की तारीफ़ करनी पड़ेगी, बहन पुष्पा जी. आपने बहुत गौर से मंदिरों में भक्तों के व्यवहार को देखा है और एक एक बात को नोट किया है तथा इसे बड़े रोचक तरीके से बताया है. मूर्तियों का जलाभिषेक हो या मूर्तियों पर चन्दन का लेप अथवा तिलक लगाना हो या फिर देवता को अक्षत चढ़ाना हो, या फिर देवता को भोग लगाना हो, इन सब क्रियाकलाप में हर जगह भक्ति कम और दुर्दशा अधिक दिखाई देती है. इस संबंध में मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ. इस व्यवहार के पीछे भक्तों का अतिउत्साह होता है या उनका मनमानापन, कहना मुश्किल है. हाँ, यह अवश्य है कि किसी तटस्थ पर्यवेक्षक को यह अगर हास्यास्पद नहीं तो अजीब ज़रूर लगेगा. हम लोग न तो मंदिर को साफ़-सुथरा बनाये रखने की ओर ध्यान देते हैं और न पूजापाठ के दौरान संयत रह पाते हैं. मैं आपको बताना चाहता हूँ कि यह किसी एक मंदिर की नहीं बल्कि कमोबेश हर मंदिर का यही हाल है. सिर्फ उन मंदिरों में जहां वालंटियर्स तैनात रहते हैं और जहाँ प्रसाद भी कीमत देकर खरीदना पड़ता है, वहाँ आम तौर पर व्यवस्था व सफ़ाई देखने को मिलती है.
यदि भक्तजन यह समझ लें कि उनके द्वारा चढ़ाया गया दूध अंततः नालियों में ही जाना है, तो इसे ज़रूरतमंद बच्चों में वितरित कर देना कहीं अधिक श्रेष्ठ व पुण्य देने वाला होगा. ऐसा ही भगवान् को भोग लगाने के पश्चात् बचे हुये फलों व अन्य खाद्य पदार्थों का वितरण भी हो जाये तो बहुत अच्छा हो. जरुरत इस बात की है कि भक्ति में दिखावा न हो और ऐसा कुछ न किया जाये जिससे अंधविश्वास को बढ़ावा मिले. सामर्थ्यवान भक्तों को चाहिए कि वे समय निकाल कर मानवता की निस्वार्थ सेवा में भी तत्पर हो कर अपने तन-मन-धन का सदुपयोग करते हुये पुण्य के भागी बने. यही ईश्वर की सच्ची भक्ति होगी.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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