मैं हूँ आकाश में उड़ता बादल
मैं हूँ आकाश में उड़ता बादल
(अभी हाल ही में धरती से ऊपर हवाई जहाज में उड़ते हुये व खिड़की से बाहर खुले व्योम को निहारते हुये जो विचार मेरे मन में उमड़ आये वही कविता के रूप में प्रस्तुत है)
अविरल स्निग्ध मुलायम सुन्दर श्वेत चादर सी फैली
चूम रही थी पर्वत माला को वो बादल की एक छवि
देख के उसके पीछे आती थीं छोटी छोटी कई बदलियाँ
उन्हें देख मन मचल उठे और कहे मैं भी चल दूँ उनके संग
कही दिखता अंगड़ाई सी लेता कही दौड़ता हुआ सा बादल
कही अकिंचन सा स्वरुप लिए खड़ा था ध्यान मग्न साधू की तरह
कही लगा करे है क्रीड़ा एक बड़ा बादल छोटे बादल संग.
कहीं ऊँचे पहाड़ो पर ऐसा बिछौना बना जैसे हो रुई कपास का रंग
श्वेत लहर और अपार शांति उल्लसित कर देती तन और मन को.
नीरवता में निमग्न बादल हास्य कर रहे थे मानव से
जन जीवन को गुरु बन कर ज्यों शिक्षा देते थे बादल
कुछ तो हमसे सीखो तुम धरती से पानी लेते हैं और उसी को देते हैं
सब कुछ पाया जीवन से तुमने पर कभी न खुश तुम रह पाये
हम तो बिना सहारे भी देखो धरती अम्बर बिच अडिग खड़े
फिर भी जल वर्षा करते कभी शीतल छाँव प्रदान कर हर्षाते
तुमको खुशियों का जीवन देकर पल में हम तो बिखर से जाते
अस्तित्व नहीं कोई अपना बस हैं बनते-बिगड़ते तुम्हारे हेतु
बिना सहारों के चलते जाते तन्हा बिना शिकायत शिकवे के
बस एक गिला है तुमसे यही संयंत्रों ने किया जीना दूभर
पहले की तरह अब चाह के भी बरसना अब तो कठिन हुआ
ग्लोबल वोर्मींग ने नमी सोख ली, पग में छाले ही छाले हैं
अब रूप कुरूप हुआ अपना ही शीतलता को दिन-रात तरसते
Last edited by rajnish manga; 13-01-2016 at 11:19 AM.
|