पानी और पर्यावरण
पानी और पर्यावरण
साभार: डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरूण’
इक्कीसवीं शताब्दी में मानव-जीवन के सरोकारों में यदि सबसे बड़ा कोई सरोकारआज माना जा सकता है तो निश्चित रूप से वह ‘पर्यावरण’ ही है। सम्पूर्णविश्व आज निरन्तर बढ़ते ‘पर्यावरण-प्रदूषण की विभीषिका’ से संत्रस्तहै। नदियाँ सूख रही हैं; तालाबों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है:-प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंद दोहन के कारण मानव का जीवन विनाश के कगारपर जा पहुँचा है, तो बढ़ते आणविक-युद्ध की विभीषिका ने विश्व-मानव की नींदउड़ा दी है।
साहित्य अपने युगीन-समाज की धड़कन बनता आया है, चूँकि साहित्य के माध्यम सेही मानव-मन की चिन्ताओं की अभिव्यक्ति होती है और तभी चिन्ताओं से मुक्तिका ‘चिन्तन’ रचनाकार करते हैं।
प्रत्येक युग में साहित्य-साधकों ने ‘शब्द -ब्रह्म’ की साधना करते हुए मानवकी धात्री ‘प्रकृति’ का भी भाव-पूर्ण स्तवन किया है। मानव-जीवन का आधारकहे जाने वाले ‘पंच महाभूतों’ का स्तवन साहित्य में निरन्तर होता आया है।महाकवि तुलसी के ‘मानस’ में हमें प्रकृति के साथ-साथ गंगा और सरयू केमाध्यम से ‘पर्यावरण’ का चिन्तन मिलता है, तो कविवर रहीम तो ‘पानी’ केमाध्यम से ‘जीवन के तत्व’ का ज्ञान करा देते हैं-
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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