Re: पानी और पर्यावरण
‘‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून!
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुस चून!!’’
आज के कवियों ने भी मानव-जीवन की सर्वोपरि चिन्ता अर्थात ‘पर्यावरण’ कोअपने गीतों,गज़लों और दोहों आदि के माध्यम से सशक्त वाणी दी है।
दोहों में पर्यावरण चिन्ता आज के रचनाकार सम्भवत: इस लिए अधिकाधिक व्यक्तकर रहे हैं कि छोटा सा दोहा छन्द आदमी की स्मृति में सरलता से बस जाता है।दोहाकार कवि हरेराम ‘समीप’ के कुछ पर्यावरणीय दोहे, मैं यहाँ अपने प्रबुद्धपाठकों के लिए इस उद्देश्य से उद्धृत कर रहा हूँ कि पाठक आज के रचनाकारोंकी चिन्तन-धारा से परिचित हो सकें।
‘‘बिटिया को करती विदा,
माँ ज्यों नेह समेत!
नदिया सिसके देखकर,
ट्रक में जाती रेत!!’’
इस बेहद मार्मिक दोहे में कवि श्री समीप ने नदियों की छाती चीर-चीर कर, अट्टालिकाओं के निर्माण हेतु रेत और खनिज का दोहन करने वाले ‘माफियाओं’ काचित्रण ‘ट्रक में जाती रेत’ के माध्यम से करके जहाँ ‘बाढ़’ की भयंकरविभीषिका का कारण बताया है, वहीं ‘बिटिया की विदा’ के मार्मिक प्रसंग से ‘नदिया’ की अनबोली-अबूझ पीड़ा को भी वाणी दे दी है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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