Re: आज का शायर
आज का शायर (1 जनवरी)
मख़मूर जालंधरी / Makhmoor Jalandhari
ग़ज़ल
‘मख़मूर’ जालंधरी
पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके
हम क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से रिहा भी न हो सके
दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ वफ़ा पर है हम-नशीं
वो क्या करे कि जिससे वफ़ा भी न हो सके
गो उम्र भर भी मिल न सके आपस में एक बार
हम एक दूसरे से जुदा भी न हो सके
जब जुज़्ब की सिफ़ात में कुल की सिफ़ात है
फिर वो बशर भी क्या जो खुदा भी न हो सके
ये फैज़-ए-इश्क़ था कि हुई हर खता मुआफ़
वो खुश न हो सके तो खफ़ा भी न हो सके
वो आस्तान-ए-दोस्त पे क्या सर झुकाएगा
जिस से बुलंद दस्त-ए-दुआ भी न हो सके
ये एहतिराम था निगह-ए-शौक़ का जो तुम
बेपर्दा हो सके जल्वा-नुमां भी न हो सके
‘मख़मूर’ कुछ तो पूछिए मजबूरी-ए-हयात
अच्छी तरह खराब-ए-फ़ना भी न हो सके
शब्दार्थ:
पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा = अच्छाई करने में सावधानी व प्रतिबद्धता / क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म= दुःख को छुपाने का बंधन / दार-ओ-मदार-ए-इश्क़ = प्यार की निर्भरता / वफ़ा = अच्छाई / हम-नशीं = साथी / जुज़्ब की सिफ़ात = एक अंश की विशेषतायें / बशर = व्यक्ति / फैज़-ए-इश्क़ = प्यार की देन / आस्तान-ए-दोस्त = मित्र का घर / दस्त-ए-दुआ = दुआ के लिये उठे हुये हाथ / एहतिराम = आदर सहित / निगह-ए-शौक़ = प्यारभरी दृष्टि / जल्वा-नुमां = सामने प्रगट होना / मजबूरी-ए-हयात = जीवन की विवशतायें / खराब-ए-फ़ना = मृत्यु से विनष्ट होना
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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