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Originally Posted by आकाश महेशपुरी
ग़ज़ल- नहीं सोचा वही...
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नहीं सोचा वही हर बार निकला
सितमगर तो मेरा ही यार निकला
मुझे मिलती यकीनन आज मंजिल
किनारा ही मगर मझधार निकला
हँसाता एक बन्दा जो सभी को
हकीकत में बहुत बेजार निकला
ग़ज़ल- आकाश महेशपुरी
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शानदार रचना. इस खुबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आकाश जी. इसका एक एक शे'र बेसाख्ता जीवन की अनछुई अनुभूतियों से हमारा परिचय कराता है. उपरोक्त शे'र ख़ास तौर पर उल्लेखनीय.