Re: दलितों की मूँछ और हमारा समाज
दलितों की मूँछ और हमारा समाज
दुखद है कि भारत का समाज हर समय और हर जगह इस हिंसक सोच का बार बार प्रदर्शन कर रहा है। ऐसा लगता है कि एक तबके को बारूद में बदलने की फैक्ट्री खुली है। जिससे धर्म के नाम पर हिंसा फैलाने के लिए गोले बन रहे हैं तो दूसरी तरफ जाति के नाम पर कमज़ोर के ख़िलाफ़ हिंसा फैलाने के लिए गोले बन रहे हैं। दो मिनट के लिए ठहर कर सोचिए कि हम कर क्या रहे हैं। क्या ये भी शर्मनाक नहीं है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊना की क्रांतिकारी घटना के बाद गुजरात के गाँवों में दलितों से बदला लिया जा रहा है? सामाजिक अधिकार के लिए लड़ने वाले संगठनों ने बुधवार को गुजरात विधानसभा के बाहर प्रदर्शन का एलान किया है।
कांचा इलैया को मारने की धमकी दी जा रही है। कई दिनों से आर्थिक ख़बरों में उलझे होने के कारण इस बहस को देख नहीं सका। आहत के पास आहत होने के जायज़ तर्क हो सकते हैं मगर उसके नाम पर मारने , धमकी देने का लाइसेंस कौन देता है? कभी तो हम भीतर की हिंसा और नफ़रतों से आज़ाद होने का प्रयास करेंगे या नहीं करेंगे ?
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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