Re: ज्ञानपीठ पुरस्कार (2017) कृष्णा सोबती को
कृष्णा सोबती / krishna sobti
ज़िंदगीनामा: एक परिचय
कृष्णा सोबती अविभाजित पंजाब मूल की लेखिका हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में अविभाजित पंजाब की जीवंत संस्कृति के जो चित्र प्रस्तुत किए हैं जो उनके ‘जिंदगीनामा’ नामक उपन्यास को प्रेमचन्द के ‘गोदान’, यशपाल के ‘झूठा सच’, अज्ञेय के ‘शेखर : एक जीवनी’, जैनेन्द्र कुमार के ‘त्याग पत्र’, अमृतलाल नगर के ‘बूँद समुद्र’, फणिश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं।
1979 में यह उपन्यास प्रकाशित हुआ। 392 पृष्ठ के इस उपन्यास में विभाजन पूर्व पंजाब के जन-जीवन और संस्कृति का अद्भुत पुनःसृजन किया गया है। लेखिका काअपनी मातृभूमि और संस्कृति से गहरा लगाव है और वह उपन्यास के शुरू मेंकविता-रूप में पाठक के सामने आता है।लेखन को जीवन का पर्याय मानने वालीकृष्णा सोबती जीकी क़लम से उतरा यह एक ऐसा उपन्यास है जो सचमुच ज़िन्दगी का पर्याय है – और उसका नाम हैज़िन्दगीनामा।वास्तव में यह उपन्यास पारंपरिक उपन्यास से भिन्न है। इसमें न कोई नायकहै, न कोई खलनायक। सिर्फ़ लोग, और लोग, और लोग। यह उपन्यास जीवनानुभव केअनुसार अपना ढाँचा स्वयं बनाता है।
इस उपन्यास में कथा तो कम है, दृश्योंका एक लगातार क्रम है। लेखिका ने डेरा जट्टा गांव की यादों को दृश्य मेंबांधकर प्रस्तुत किया है। उस गांव में बसे हिन्दू, मुसलमान और सिख समुदायकी ज़िन्दगी के अनेक चित्र सांस्कृतिक बिंबों के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है।शाहजी के परिवार को केन्द्र में रखकर प्रेम कथाएं, लोहड़ी, ईद, दशहारा, बैशाखी उत्सव के चित्र और अनेकों कहानियों का संगम है यह उपन्यास। इसकेपन्नों में आपको बादशाह और फ़क़ीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों कीमुँडेरों पर खड़े मिलेंगे, एक भीड़ के रूप में। एक भीड़ जो आमजन की भीड है, एकऐसी भीड़ जो हर काल में, हर गांव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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