Re: महाभारत के पात्र: कर्ण
महाभारत के पात्र: कर्ण
मैं अकेला सुंदर मखमल युक्त पेटी में गंगा की कलकल- छलछल करती पवित्र धार में बहता जा रहा हूँ। जब मैंने आँखों को खोलने का प्रयास किया तब तेज़-तप्त पिता सूर्य की किरणें नेत्रों में चुभने लगीं और मैं क्रंदन कर उठा। गगन में शान से दमकते हुए मेरे पिता ने सब देखते हुए भी अनदेखा कर दिया।
पर निसंतान सूत अधिरथ ऐसा नहीं कर सके। उन्होने मुझे गंगा की धार में असहाय क्रंदन करते सुना। तत्काल मुझे निकाल अपने साथ अपनी पत्नी के पास ले गया। एक माँ ने अश्रुपूर्ण नयन से अर्क पुत्र को विदा कर दिया था। दूसरी, राधा माता ने परिचय जाने बगैर , खुशी से चमकते नेत्रों से और खुली बाहों से मुझे स्वीकार किया। उन्होने मेरा नाम रखा वसूसेना । मेरे वास्तविक माता पिता कौन कहलाएंगे? राधा और धृतराष्ट्र के रथ को चलानेवाले अधिरथ ही न?
जन्म से मेरे बदनटंकित स्वर्ण कवच –कुंडल और मेरे मुख पर पिता सूर्य का तेज़ देख मोहित हो गए राधा और अधिरथ । निस्वार्थतापूर्वक, अपूर्व प्रेम के साथ पालक माता-पिता ने मेरा पालन- पोषण किया। काश मैं उनका वास्तविक पुत्र होता। आज भी जब कोई मुझे राधेय पुकारता है तब सबसे अधिक खुशी होती है। आजतक, मृत्युपर्यन्त, उन्हें ही मैं अपना माता-पिता मान पुत्र धर्मों का निर्वाह करता आया हूँ।
मेरे बचपन में मेरे बाल्य सखा मुझे परिचय रहित मान चिढ़ाते। पास-पड़ोस के लोग अक्सर मुझे देख उच्च स्वर में कानाफूसी करते, मुझे सुनाते और जलाते थे। मेरे दुखित हृदय कभी किसी ने शीतल स्नेह से नहीं सहलाया।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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