अपने दोपहर के भोजन का इंतजाम कर मैं आगे बढ़ा और ऐसे व्यक्ति को ढूंढने लगा जिसे मैं अपना ज्ञान बघार सकूं। चौक पर महंगाई की मार से पूरी ताकत से लड़ने वाले जांबाज “बेवड़ों” को देखा। इनकी जिद को मैं सलाम करता हूं। चाहे कितनी भी महंगाई आ जाए, कुछ भी हो जाए इनके कोटे में कोई कमी नहीं आती। महंगाई कितना ही फुंकार मारे ये वीर एक बोतल दारू धकेलकर उसका फन कुचलने को आतुर रहते हैं। मैं ऐसे लड़ाकों से बात करना चाहता था। मैं पास गया और बोला कि बधाई हो महंगाई कम हो गई। ये लीजिए रसगुल्ला खाइए। उन बेवड़ों ने अपनी नशीली आंखों से मुझे देखा फिर डोलते हुए पास आए और बोले- “महंगाई क्या है भई। हमको तो नही मालूम। हम तो पहले भी दिन में चार बार टुन्न हुआ करते थे और अब भी होते हैं और आगे भी होते रहेंगे। आओ तुम भी महंगाई का सामना करो। ये क्या रसगुल्ला खिला रहे हो यार कोई नमकीन-वमकीन हो तो बताओ, हमारा चखना खत्म हो गया है।” मैंने पीछे हटते हुए कहा- मैं रसगुल्ला बांटकर ही तो महंगाई कम होने का जश्न मना लूंगा। आप लोग लगे रहिए। जाकर बंगाली होटल से नमकीन ले लीजिए उसने रेट कम कर दिए। इतना सूनते ही सभी बेवड़ों ने दौड़ लगा दी।