30-10-2010, 06:15 PM
|
#6
|
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34
|
सिंहासन बत्तीसी 05
एक बार दो आदमी आपस में झगड़ रहे थे। एक कहता था कि तकदीर बड़ी है, दूसरा कहता था कि पुरुषार्थ बड़ा है। जब किसी तरह मामला न निबटा तो वे इन्द्र के पास गये। इन्द्र ने उन्हें विक्रमादित्य के पास भेज दिया। राजा ने उनकी बात सुनी और कहा कि छ: महीने बाद आना। इसके बाद राजा ने किया क्या कि भेस बदलकर स्वयं यह देखने निकल पड़ा कि तकदीर और पुरुषार्थ में कौन बड़ा हैं। घूमते-घूमते उसे एक नगर मिला। विक्रमादित्य उस नगर के राजा के पास पहुंचा और एक लाख रूपये रोज पर उसके यहां नौकर हो गया। उसने वचन दिया कि जो काम और कोई नहीं कर सकेगा, उसे वह करेगा, उसे वह करेगा। एक बार की बात है कि उस नगर की राजा बहुत-सा सामान जहाज पर लादकर किसी देश को गया। विक्रमादित्य साथ में था। अचानक बड़े जोर का तूफान आया। राजा ने लंगर डलवाकर जहाज खड़ा कर दिया। जब तुफान थम गया तो राजा ने लंगर उठाने को कहा, लेकिन लंगर उठा ही नहीं। इस पर राजा ने विक्रमादित्य से कहा, "अब तुम्हारी बारी है।" विक्रमादित्य नीचे उतरकर गया और भाग्य की बात कि उसके हाथ लगाते ही लंगर उठ गया, लेकिन उसके चढ़ने से पहले ही जहाज पानी और हवा की तेजी से चल पड़ा।
विक्रमादित्य बहते-बहते किनारे लगा। उसे एक नगर दिखाई दिया। ज्योहीं वह नगर में घुसा, देखता क्या है, चौखट पर लिखा है कि यहां की राजकुमारी सिंहवती का विवाह विक्रमादित्य के साथ होगा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। वह महल में गया। अंदर सिंहवती पलंग पर सो रही थी। विक्रमादित्य वहीं बैठ गया। उसने उसे जगाया। वह उठ बैठी और विक्रमादित्य का हाथ पकड़कर दोनों सिंहासन पर जा बैठे। उनका, विवाह हो गया।
उन्हें वहां रहते–रहते काफी दिन बीत गये। एक दिन विक्रमादित्य को अपने नगर लौटने क विचार आया और अस्तबल में से एक तेज घोड़ी लेकर रवाना हो गया। वह अवन्ती नगर पहुंचा। वहां नदी के किनारे एक साधु बैठा था। उसने राजा को फूलों की एक माला दी और कहा, "इसे पहनकर तुम जहां जाओंगे, तुम्हें फतह मिलेगी। दूसरे, इसे पहनकर तुम सबको देख सकोगे, तुम्हें कोई भी नही देख सकेगा।" उसने एक छड़ी भी दी। उसमें यह गुण था कि रात को सोने से पहले जो भी जड़ाऊ गहना उससे मांगा जाता, वही मिल जाता।
दोनों चीजों को लेकर राजा उज्जैन के पास पहुंचा। वहां उसे एक ब्राह्यण और एक भाट मिले। उन्होंने राजा से कहा, "हे राजन्! हम इतने दिनों से तुम्हारे द्वार पर सेवा कर रहे हैं, फिर भी हमें कुछ नहीं मिला।" यह सुनकर राजा ने ब्राह्यण को छड़ी दे दी और भाट को माला। उनके गुण भी उन्हें बता दिये। इसके बाद राजा अपने महल में चला गया।
छ: महीने बीत चुके थे। सो वही दोनों आदमी आये, जिनमें पुरुषार्थ और भाग्य को लेकर झगड़ा हो रहा था। राजा ने उनकी बात का जवाब देते हुए कहा, "सुनो भाई, दुनिया में पुरुषार्थ के बिना कुछ नहीं हो सकता। लेकिन भाग्य भी बड़ा बली है।" दोनो की बात रह गई। वे खुशी-खुशी अपने अपने घर चले गये।
इतना कहकर पुतली बोली, "हे राजन्! तुम विक्रमादित्य जैसे तो सिंहासन पर बैठों।"
उस दिन का, मुहूर्त भी निकल गया। अगले दिन राजा सिंहासन की ओर बढ़ा तो कामकंदला नाम की छठी पुतली ने उसे रोक लिया। बोली, " पहले मेरी बात सुनो।"
|
|
|