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Originally Posted by kumar anil
निःसंदेह , तस्वीरेँ ह्रदयविदारक हैँ । पर क्या करूँ जब अपनी नीयत ही संदेह की परिधि मेँ हो । इनकी नियति और हमारी नीयत दोनोँ ही खोटी हैँ । सत्यजित रे इसी गरीबी का चित्रण कर महान फिल्मकार बन गये और हम उन तथाकथित कलात्मक फिल्मोँ का रसास्वादन कर , रोमांचित हो घड़ियाली आँसू बहाने वाले दर्शकमात्र । हम इतने मक्कार निकले कि उस गरीबी मेँ भी मुनाफ़ा कमाने लगे या फिर ड्राईँगरूम से लेकर नेट तक चर्चा कर ख़ुद पर विशिष्ट होने का ठप्पा लगाते रहे । पर अपनी व्यस्तता को जस्टिफाई करने के लिये बीबी की नाज़ुक कलाईयोँ को आराम देने के लिये कितनी धूर्तता से इन्हीँ लाचार हाथोँ मेँ चन्द सिक्के थमाकर अपनी ज़िन्दगी साधने लगे । कुत्ते पालने के साथ ही इन्हेँ भी नौकरोँ के रूप मेँ पालना स्टेटस सिँबल बन गया । हो भी क्योँ न , आख़िर वर्तमान जनगणना के आँकड़े बोल रहे हैँ कि गरीबी घटी है मगर गरीब बढ़े हैँ । कभी कभी तो हम इतनी कमीनगी पर उतर आते हैँ कि झौव्वा भर बच्चोँ के गरीब माँ बाप से उनका सुनहरा भविष्य बनाने के नाम पर , रोटी को मोहताज बच्चोँ को , अपने बच्चे के फेँके हुये बर्गर का स्वाद चखाकर , उन्हेँ दासता का पट्टा पहनने पर विवश कर देते हैँ । हम उनके उत्थान की नहीँ अपितु अपने रॉ मैटीरियल की तलाश करते हैँ । ये कोई आज की त्रासदी नहीँ , बरसोँ से है । शायद तभी निराला जी ने कहा होगा कि श्वानोँ को मिलता दूध वस्त्र , औ भूखे बच्चे अकुलाते हैँ ।
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जी तो करता है आपकी बात पर आपको धन्यवाद दूँ, तालियाँ बजाऊं
पर दिल इसकी इजाजत नहीं देता
अगर हम ऐसा करेंगे तो नया क्या करेंगे, ये तो हम हमेशा से करते आयें है
अभी अभी मेरे ऑफिस में ८ साल का लड़का चाय पहुँचाने आया है, लोग चुस्कियां लेकर चाय का आनंद ले रहे है और वो कोने में खड़ा ये इन्तजार कर रहा है की कब चाय खत्म हो और वो गिलास लेकर वापस जाये. उसके मालिक ने उसे हिदायत दे रखी है की अगर एक भी गिलास फूटा तो पैसे तेरे कटेंगे.
और मैं उस पर लिख रहा हूँ
हाय रे प्रालब्ध