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rajnish manga
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Default Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग

नागर जी कानपुर गए हैं

यह उन दिनों की बात है जब डॉ. धर्मवीर भारती अभी इलाहाबाद में अभी एक शोध-छात्र ही थे. साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से उनका लेखन हिंदी जगत में अपनी पहचान बना रहा था. उनकी एक-दो पुस्तकें भी छप चुकी थीं. हिंदी के मूर्धन्य लेखक अमृतलाल नागर से उनका व्यक्तिगत परिचय था लेकिन लखनऊ उनके निवास स्थान पर जाने का अवसर न मिला था. एक बार भारती जी किसी काम से लखनऊ गए और श्री केशव चन्द्र वर्मा के साथ हज़रत गंज में घूम रहे थे कि अचानक तय किया कि अमृत लाल नागर जी के यहाँ जाया जाये. आगे का हाल स्वयं भारती जी के शब्दों में सुनिए –

शाम ढलने लगी थी. चौक पहुंचे. कई गलियों की ख़ाक छानी. सब उन्हें जानते थे, खोमचे वाले, हलवाई, फूल वाले, पान ज़र्दा वाले. सभी ने इतने उत्साह से रास्ता बताया कि हम गुमराह होते होते बचे. पहुंचे. एक पुराने ढर्रे का मकान (बाद में दूसरे मकान में चले गए थे). वे रहते थे ऊपर वाली मंजिल में, बाहर से ही जीना था.
सीढियां चढ़ते दिल धड़क रहा था. क्या बताएँगे कि क्यों आये हैं? क्या बात करेंगे. बात करेंगे भी या नहीं. अगर कहीं न मिले तो?

जीने पर खड़ी सीढियां थी और गली के मकान के बंद जीने जैसी सीलन और अँधेरा. ऊपर दरवाजा बंद था. घंटी – वंटी का रिवाज तो तब था नहीं. पहुँच कर कुण्डी खड़काई. क्षण भर बाद दरवाजा खुला और भाभी (स्व. श्रीमती प्रतिभा नागर) की पहली झलक मिली. लम्बी, तन्वंगी, बादामी रंग की साड़ी और अजब सा उजास फैलाता हुआ रंग.

“कहिये?” उन्होंने थोड़ी रुखाई से पूछा.
“नागर जी हैं क्या?”
“नहीं,” वे बोली बड़ी गंभीरता से, “वो तो कानपुर गए हैं.”
हम दोनों हतप्रभ! इतनी हिम्मत कर के आये भी और नागर जी हैं ही नहीं. अब क्या करें हम लोग?
वे प्रतीक्षा में खड़ी रहीं कि हम लोग या तो जायें या कुछ कहें. मैंने हिम्मत कर के कहा, “नमस्कार, नागर जी कानपुर से आयें तो कह दीजियेगा, इलाहाबाद से भारती और केशव आये थे?”
“भारती और केशव ... “ उन्होंने जैसे याद करने के लिए दोहराया ... और सहसा घर के अन्दर से जोर से आवाज आयी .... “अरे चले आओ भैया भारती, केशव आ जाओ, आ जाओ .... मैं यहीं हूँ !” नागर जी अन्दर से पुकार रहे थे.
दरवाजा पूरा खुल गया. भाभी कुछ खीज कर झटके से अन्दर चली गयीं.
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