महबूबा ऐसी दिखती....!
मय -भरी आँख में ,पीने के संदेशे तैरें ;
चाँद से मुख पे जहाँ ,जुल्फ के बैठे पहरे .
सिलवटें माथे की,गज़लों की पंक्तिया लगतीं ;
रस -भरे होंठ,जैसे मिसरी की डलियां लगतीं.
दांत मोती-जड़े से ,खिलखिलाते लगते हैं;
कान की जगह पर ,दो सीप जड़े लगते हैं.
चाल जिसकी चुरा के ,हिरन वन में इठलाते ;
बदन की ख़ुश्बू से जिसकी ,गुलाब शर्माते .
कमर बल खाए तो ,लहरों-सी अदा करती है ;
जो अगर हँस दे तो ,सरगम - सी बजा करती है .
निगाहे ताज महल भी,उसी पे अटकी है ;
जिस्म ऐसा है , 'खजुराहो ' से जैसे भटकी है .
जानना चाहती हो , कौन सी ' वीनस ' है वो ;
मैं क्यों बताऊँ तुम्हें , आईने में देख लो खुद.
रचनाकार ~~ डॉ. राकेश श्रीवास्तव
लखनऊ,इंडिया.
Last edited by Dr. Rakesh Srivastava; 03-07-2011 at 11:12 AM.
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