Re: ओम प्रकाश वाल्मीकि
शुरुआत उनके उसी पहले कविता-संग्रह से करता हूं, जो हमारी पहली मुलाकातका कारण बना। इस संग्रह की पहली कविता है- ‘ठाकुर का कुंआ’। इस कविता नेहिंदी साहित्य के भद्रलोक को, जो हिंदुत्व के तहत शीर्षासन कर रहा था, पैरों के बल खड़ा कर दिया था। इस कविता में ‘ठाकुर का कुंआ’ जातिव्यवस्थाका प्रतीक नहीं है, बल्कि सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है।कुंआ का अर्थ है पानी, जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। और जीवनके ये सारे संसाधन इसी सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के हाथों में हैं।उत्पादन करने वाली जातियां और मेहनतकश लोग सब-के सब इसी व्यवस्था के गुलामहैं। इसी यथार्थ को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कविता में व्यक्त कियाहै—’चूल्हा मिट्टी का/ मिट्टी तालाब की/ तालाब ठाकुर का। भूख रोटी की/ रोटीबाजरे की/ बाजरा खेत का/ खेत ठाकुर का/ बैल ठाकुर का/ हल ठाकुर का/ हल कीमूठ पर हथेली अपनी/ फसल ठाकुर की/ कुंआ ठाकुर का/ पानी ठाकुर का/खेत-खलिहान ठाकुर के/ गली-मुहल्ले ठाकुर के/ फिर अपना क्या? गांव? शहर? देश?’ इस कविता में सबसे विचारोत्तेजक पंक्ति यही है- ‘फिर अपना क्या?’ यहसवाल उस जन का है, जो इस तंत्र में धर्मतंत्र और जातितंत्र के नाम पर सबसेज्यादा शोषित है, और उसकी पीड़ा का कोई अंत नहीं है। यही जन जब मुट्ठीतानकर सड़क पर उतरता है, व्यवस्था को ललकारता है—’किंतु इतना याद रखो/ जिसरोज इंकार कर दिया/ दीया बनने से मेरे जिस्म ने/ अंधेरे में खो जाओगे/हमेशा-हमेशा के लिए। ‘(दीया) तो यह तंत्र उसे कुचलने के लिए नृशंसता की हरहद से गुजर जाता है। लेकिन ‘सदियों का संताप’ कविता में वाल्मीकि कहते हैंकि दुश्मन के खिलाफ इस चीख को जिंदा रखना है, क्योंकि भयानक त्रासदी के युगका खात्मा होने के इंतजार में हमने हजारों वर्ष बिता दिए, अब औरनहीं—’दोस्तों, इस चीख को जगाकर पूछो/ कि अभी और कितने दिन/ इसी तरह गुमसुमरहकर/ सदियों का संताप सहना है?’
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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