Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (6)
यह गाथा लम्बी से और लम्बी होती जा रही है। यदि इस प्रयास में कुछ श्रेय बन पड़ा, वह श्रेय तुम्हारा ही कहा जाएगा। तुम्हारे मस्तिष्क की उपज का यह फल है। तुम्हारा सतत् आग्रह – मैं कैसे भूलूँ? तुमने इन सफ़ों में ऐसा क्या पाया कि उसे सोश्यो-इकोनॉमिक-कल्चरल सूचनाओं का खज़ाना कह डाला। ख़ैर, जैसा तुमने लिखा, तुम्हारा अपना नज़रिया है। अब अपने इस पुराण को आगे बढ़ाया जाए? सात दिनों का व्यवधान। पहली किताब तुम्हारे पास रह गई। मन में एक शंका उठी कि अब जो प्रसंग लिखना है वह इसमें लिखूँ कि वो पहले लिख चुकी हूँ? परसों वह किताब स्वाति तुमसे ले आई इसके बावजूद कल मैंने कलम हाथ में नहीं ली। तुम्हारी दी ‘बॉर्डर म्यूजि़क’ पढ़ने में व्यस्त रही। मैं बच्चों जैसी सफाई दे रही हूँ – तुम यही सोच रही हो ना? सच तो यह है कि कभी-कभी ऐसा मूड कुछ हल्का कर देता है मन को। अब अपने सेवाकाल के प्रथम सोपान पर कदम रखूँ? 1 अगस्त 1940। मैंने जिन अध्यापिका से उच्च कक्षाओं को हिन्दी पढ़ाने का भार ग्रहण किया वह थीं श्रीमती लीलावती। वह किसी उच्च परिवार की भद्र महिला थीं – आकर्षक व्यक्तित्व, वाणी में मिठास और कद-काठी में पंजाब की महिलाओं सरीखी थीं। विधवा थीं – एक पुत्र की माता। उनके पुत्र का नाम याद आ रहा है – जयकिशन। कालान्तर में उनके इस पुत्र की चर्चा डॉ. ताराचन्द गंगवाल और सुलोचना दीदी के मुख से अनेक बार सुनी गई थी। उनका पेट नेम था ‘जैकी’। अजमेर रोड़ पर उनकी एक विशाल कोठी थी। पर जाने किन परिस्थितियोंवश ‘लीला बहिनजी’ चाँदपोल बाज़ार स्थित नाहरगढ़ रोड पर रहती थीं। वह भी शायद उनका निजी मकान रहा होगा। निश्चित नहीं। मैं उनके घर जब-जब गई, बड़े दुलार से वह अपने हाथ का बनाया भोजन करातीं। उन्होंने हिन्दी की कोई परीक्षा पास की थी – उसी आधार पर वह हिन्दी अध्यापिका पद पर कार्यरत थीं।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:30 AM.
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