Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त
तभी उस खूबसूरत सहयात्री ने कहा "यदि आपको कष्ट ना हो तो मैं ये लाईट बुझा दूँ, सोने का समय हो चला है ।" आदित्य ने ऊपरी सीट से झाँकते हुए देखा और एकटक देखता ही रहा । उसकी खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखें थीं, जो उसके चेहरे को दुनिया के बाकी खूबसूरत चेहरों से अलग करती थीं । उसने चादर ओढ़ते हुए फिर से अपनी बात दोहराई । आदित्य का ध्यान भंग हुआ और तब उसने कहा "जी बिल्कुल, मुझे कोई आपत्ति नहीं है" । लाईट बुझ गयी । जिसका अर्थ था कि सो लेने के सिवा कोई बेहतर विकल्प हाथ में नहीं है । और अंततः कुछ क्षण सोचते हुए आदित्य भी नींद की गोद में चला गया ।
सुबह के आठ बज गए थे, जब आदित्य की आँख खुली । उजाले में ट्रेन शोर मचाती हुई चली जा रही थी । याद हो आया कि वह ट्रेन में है और दिल्ली को वापस जा रहा है । उसने नीचे को झाँक कर देखा । वो अपनी सीट पर बैठी किताब पढने में मग्न थी । खिड़की के रास्ते से आती मुलायम धूप, रह-रह कर लुका-छुपी का खेल, खेल रही थी । मालूम होता था, सुबह का सूरज उसके चेहरे की आभा से लजा रहा हो ।
आदित्य सीट पर से उतरकर, चप्पलों को संभालते हुए, नित्य कर्म करने की ओर चल दिया । वापसी में चेहरे को धुलकर, स्वंय के जागने की निशानी ओढ़ आया । और आकर नीचे की ही रिक्त सीट पर बैठ गया । उसने बाहर की ओर झाँका । खिड़की के उस ओर से पेड़, खेत और उनमें काम करते लोग पीछे की ओर दौड़ते से जान पड़ रहे थे ।
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