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Old 11-09-2013, 07:17 PM   #9
jai_bhardwaj
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Default Re: कहानी : निशिगंधा - अनिल कान्त

भोपाल पहुँचने पर निशा ने फ़ोन किया । जो फिर एक आदत में तब्दील हो गया । कभी आदित्य फ़ोन करता तो कभी निशा । मिनटों का स्थान पहले घंटों ने लिया और फिर कई दफा तो सारी रात बीत जाती । बातें थीं कि, एक ख़त्म होती तो दूजी उपज आती । अब दोनों को ही इस बात का एहसास हो चला था कि उनका रिश्ता अब केवल दोस्ती तक सीमित नहीं रहा । वे उसकी परिधि के बाहर जा चुके हैं । किन्तु यह केवल एक अनकहा सच था । जिसे किसी ने कबूल नहीं किया था । यह केवल मौन स्वीकृति थी कि वे किसी भी विषय को छू सकते थे । अपना रूठना जता सकते थे । रात-रात भर, एक दूसरे को मना सकते थे । उन दिनों में निशा आदित्य को 'आदि' कहने लगी थी और आदित्य निशा को आप से तुम ।

दो महीने बाद, निशा का दिल्ली आना हुआ । जो संयोगवश ना होकर, पूर्व नियोजित था । वे दोनों जब मिले तो उनके मध्य चुप्पी पसर गयी । कहने को कितना कुछ तो था । किन्तु वह क्या था जो रोके हुए था । आने से पहले दोनों ने क्या-क्या तो सोचा था । कि ये कहेंगे या वो कहेंगे । किन्तु मौन टूटे नहीं टूट रहा था । अंततः आदित्य बोला "तो अबके तुम्हारी बारी है, ट्रीट देने की" । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये, जो अक्सर ही उसके खुश होने को जताते थे ।

-"हाँ, हाँ, क्यों नहीं । कहाँ चलना है ? वहीँ, उसी रेस्टोरेंट में ?" निशा चहकते हुए बोली ।

-नहीं, वो तो जब चाहे खा सकते हैं ।

-तो फिर क्या खाना है, ज़नाब को ?

-एक अर्सा हो गया । मैगी नहीं खायी । सूजी का हलवा नहीं खाया । घर का खाना नहीं खाया ।

-अरे तो ये सब भी खिला सकते हैं आपको । हमारी बुआ के घर चलो ।

-अच्छा, सच में ।

-हाँ, बिल्कुल । यदि आप की दिली ख्वाहिश यही सब खाने की है तो ।

-क्यों ? तुम्हारी बुआ को ऐतराज़ नहीं होगा कि किसको ले आई घर पर ।

-जी नहीं, हमारे दोस्तों का हमेशा स्वागत है, उनके घर पर ।

-अच्छा, यदि ऐसा है तो चलते हैं ।

घर पर जाकर मालूम चला कि बुआ जी और फूफा जी कहीं बाहर जा रहे हैं । और ये जानने पर कि आदित्य ख़ास तौर पर आमंत्रित हुआ है । उन्होंने निशा को जाते-जाते समझा दिया कि बिना कुछ खाए, आदित्य को जाने न दिया जाए । अब केवल वे दोनों घर में थे । और आदित्य की दिली ख्वाहिश को पूरा करने के लिए निशा ने मैगी, सूजी का हलवा और कॉफी बनायीं ।

-"शादी क्यों नहीं कर लेते ? रोज़ ही घर का खाना खाया करना" मैगी और हलवा ख़त्म हो जाने और कॉफी के घूँट के मध्य निशा ने कहा ।

-बहुत देर की ख़ामोशी के बाद आदित्य ने कहा "किससे ?"

-कोई तो होगी ऐसी । जिससे शादी कर सकते होगे ।

-"मुझे तो कहीं नज़र नहीं आती" आदित्य ने गलत उत्तर देते हुए कहा ।

निशा अपनी जगह से उठकर, खाली हुए दोनों कप लेकर रसोई में जाने लगी । कप उठाते हुए ही उसकी आँख में आँसू भर आये थे । जिन्हें उसने रसोई में जाकर बहाया । पीछे से आदित्य ने जाकर उसे गले से लगा लिया । "अरे तुम तो रोने लगीं । मैं तो मजाक कर रहा था । अच्छा बाबा, आई लव यू" निशा के आँसुओं को उंगली पर लेते हुए आदित्य बोला । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये । और वो पुनः आदित्य के गले से लग गयी । एहसास होता है कि ना जाने कितने समय से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए हैं ।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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