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Old 17-02-2015, 05:51 PM   #11
Rajat Vynar
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Talking Re: प्रश्नचिह्न

परोक्त अनुच्छेद में चमत्कारपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किए गए 'यू ट्यूब' तर्क से लगभग सभी सामान्य जिज्ञासु भली—भॉंति सन्तुष्ट हो जाएॅंगे, किन्तु यर्थात इससे परे है। इस यथार्थ के अवलोकन के लिए सोनी पुष्पा जी के कथन का सारांश 'अपने पाप और पुण्य कर्मों का फल भुगतने के लिए मानव जीवन की अवधि अत्यन्त अल्प है', पर्याप्त है और प्रसंशनीय है। स्पष्ट है- 'अपने पाप और पुण्य कर्मों का फल भुगतने के लिए यदि पूर्व जन्म की अ​वधि कम है तो अगले जन्म में अपने पूर्व जन्म के पाप और पुण्य कर्मों का फल भुगतना पड़ेगा। किसी के अच्छा या बुरा होने का वास्तविक आकलन करने के लिए हमारी आँखें पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि हम किसी के पूर्व जन्म में झाँककर नहीं देख सकते। अतः किसी के पाप-पुण्यों का सम्पूर्ण एवं वास्तविक लेखा-जोखा सिर्फ़ ईश्वर के पास है और किसी घटना के आधार पर ईश्वर पर प्रश्नचिह्न लगाना अपनी अज्ञानता का परिचय देना है।' इस अनुच्छेद में निहित कटु सत्य है- 'यदि किसी के साथ कुछ बुरा घटित होता है तो यह उसके पूर्व जन्मों के पाप का ही फल है'। इस कटु सत्य से ही घबड़ाकर कुकी जी और पवित्रा जी कहती हैं- 'अपराधियों के कृत्य को किसी हालत में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।' इनका कथन ठीक ही है, क्योंकि गीता के अनुसार 'मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है और मनुष्य के कर्म पर ईश्वर का अधिकार नहीं है'। इन परिस्थितियों में यदि किसी के साथ कोई कुछ बुरा कर्म करता है तो यह उसके 'पूर्व जन्म का फल' है अथवा बुरा कर्म करने वाला इस जन्म में अपने बुरे कर्म से 'एक नया पाप' अर्जित कर रहा है- यह जानने का कोई प्रामाणिक साधन नहीं है। अतएव दोषी व्यक्ति को आध्यात्म के आधार पर निर्दोष कहना किसी हालत में न्यायसंगत नहीं हो सकता। इस चर्चा में भाग लेने के लिए आप सभी बुद्धिजीवियों को बहुत-बहुत धन्यवाद।
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