Re: मुहावरों की कहानी
चोट तब करो जब लोहा गरम हो
(प्रमिला कटरपंच के ब्लॉग से साभार)
मैं सबसे बातें कर रही हूँ। बच्चों से और औरतों से, युवाओं से और बूढ़ों से भी। लेकिन लगता है जैसे वे मेरी भाषा नहीं समझ रहे हैं। ये गाडिया लोहार हैं. वे सब मेरी ओर देखते हैं, तनिक सा मुस्कराते हैं और फिर लोहे को गर्म करने और उसे हथौड़े से पीटने के कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। वे सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं, जैसे उन्हें हमसे कोई सरोकार नहीं है। सूरज बादलों के पीछे छिप गया है और तपती धूप में तपते लोहे पर काम करने वाले ये नर-नारी थोड़ा ठंडापन महसूस करते हैं। बहुत देर तक लोगों को काम करती देखती रहती हूँ। वहाँ सब लोग काम कर रहे हैं, चाहे वह आदमी हो या औरत, छोटा हो या बड़ा, युवा हो या वृद्ध। बच्चे भी इस काम में उनका हाथ बंटा रहे हैं। थोडा आश्चर्य होता है और थोड़ा गर्व भी। जब देखती हूँ हौथड़े हाथ में लिये गर्म लाल लोहे को पीट रही हैं। सहसा बचपन में पढ़ी हुई अंग्रेजी कविता की पंक्तियाँ याद आ जाती है, जो हर पढ़े-लिखे व्यक्ति द्वारा रोजाना प्रयोग में आने वाला मुहावरा बन गया है - “हिट व्हेन दा आयरन इज हâट”। इन भोले-भाले और अनपढ़ लोगों ने बिना पढ़े ही इस मुहावरे के तथ्य को जैसे अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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