Re: मेरी ज़िंदगी : मेरे शहर
प्रिय मित्रो, कुछ अन्तराल के पश्चात मैं आप के बीच पुनः उपस्थित हुआ हूँ इस सूत्र के अगले प्रसंगों के साथ. मुझे आशा है कि यह सिलसिला आगे चलता रहेगा और आपका स्नेह भी पहले की भांति मुझे प्राप्त होता रहेगा. तो मुलाहिज़ा करें मेरे प्रिय नगर चूरू का आगे का हाल:
यहाँ की हवेलियों का रंग रूप रेगिस्तान की रेत के भूरे रंग से मेल खाता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो ये हवेलियाँ रेत से ही उपजी हों. मेरी निम्नलिखित कविता उपरोक्त तथ्यों की ही निशानदेही करती है:
उगा रेत से बालुआ ये शहर.
ठिठुराया ठहरा हुआ ये शहर.
श्री हीन होता गया पर बराबर,
है दिल को लुभाता मुआ ये शहर.
सदियों से कीलित मानचित्र जैसा,
शहरों में ईसा हुआ ये शहर.
शांत ऐसे जैसे तपोवन का कोना,
फकीरों की अथवा दुआ ये शहर.
नानक की सूखी रोटी तो है ही,
न हो चाहे हलवा पुआ ये शहर.
पछुआ पवन से छिटका हुआ गाँव,
गावों से छिटका हुआ ये शहर.
यह कविता चूरू शहर को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है.
Last edited by rajnish manga; 13-12-2012 at 09:16 PM.
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