Re: साहित्यकारों के विनोद प्रसंग
हम दोनों चमत्कृत, अन्दर गए, दूर पर दीवार के सहारे एक ऊंचे से तख़्त पर नागर जी बैठे थे. हाथ में तख्ती थी, जिस पर कागज़ लगे थे, देख कर हंसे जोर से .....
“भैया, ऐसा है कि यही तखत जो है न, हमारा कानपुर है. जब लिखते पढ़ते है यहाँ बैठ कर तो तुम्हारी भाभी से कह देते हैं कि आने-जाजे वालों से कह देना, कानपुर गए हैं. आओ भारती, केशव भी यहीं आ जाओ, कानपुर में !”
हम दोनों चौक लखनऊ के उस कानपुर में बैठने की जगह बना ही रहे थे कि भाभी दो गिलास पानी लेकर आयी. बिना किसी को संबोधित किये बुदबुदा रहीं थीं, “बाहर वालों के सामने हमारी हंसी उड़ती है, खुद ही तो .... “
“अरे ये बाहर वाले कहां हैं? नागर जी कुछ मनुहार के से स्वर में बोले, “और तुमने झूठ क्या कहा ... यह कानपुर तो है ही !”
“रहने दो.” भाभी की आवाज में मनुहार के प्रभाव से थोड़ी खनक आ गई थी ... “हरदम नाच नचाते रहते हैं !”
“अरे खाली पानी?” नागर जी ने टोका.
“आ रहा है, आप ये कुर्सी ले लीजिये ...”
भाभी ने टीन की कुर्सी मेरी ओर बढ़ाई और चली गयीं.
हम लोग बातों में मशगूल हो गए. “सेठ बांकेलाल” (नागर जी की प्रख्यात कृति) का ज़िक्र आया और लो लखनऊ के उस कानपुर में आगरा प्रकट हो गया और किनारी बाजार की रौनक छाने लगी. थोड़ी देर में लखनऊ फिर लौटा, जब भाभी दो तश्तरियों में चौक लखनऊ की मिठाइयाँ रख कर लायीं – हरे चने की बर्फी, पिश्ते का लड्डू, लाल पड़े और मलाई की गिलोरियां. फिर नागर जी की ओर देखा और हंस पड़ीं. पल्ले से मुंह ढंककर हंसी दबायी और चली गयीं. फिर नहीं आयीं.
हम लोग लौटे तो हमारे साथ थी नागर जी की निश्छल हंसी, लच्छेदार बातें, लाल पेड़ों का सौंधा सौंधा स्वाद, और भाभी के व्यक्तित्व की दीप्त उजास – जैसे धुंधलके में नाक की लौंग का हीरा छवि मारता है न, कुछ-कुछ वैसा.
(यह अंश डॉ. धर्मवीर भारती के एक श्रद्धांजलि संस्मरण में से लिया गया है जो उन्होंने श्रीमती प्रतिभा नागर, जिन्हें आदरपूर्वक ‘बा’ कह कर संबोधित किया जाता था, के निधन -28 मई, 1985- के बाद लिखा था)
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