Re: डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने (4)
हम लोगों के प्रति जीजाजी सदैव ही सशंक रहते थे। उनके इस स्वभाव की एक और बानगी देखोगी? बिर्जन जब शान्तिनिकेतन में पढ़ रही थी – सोमा जोशी नाम की एक कन्या से उसकी प्रगाढ़ मैत्री हो गई थी। सोमा जोशी श्री सुमित्रानन्दन पन्त की भांजी थी। बिर्जन ने उसे बता दिया कि मैं पन्त जी की रचनाओं से कितनी प्रभावित हूँ तथा उनकी बड़ी प्रशंसक भी हूँ । एक दिन तीसरे प्रहर सोमा जोशी अचानक पन्तजी को लेकर हमारे घर उपस्थित हो गई। (कोई अवकाश रहा होगा) – बिर्जन भी तब इलाहाबाद में ही थी। बिर्जन ने गर्मजोशी से सोमा का स्वागत किया था। पन्तजी से हम लोगों का परिचय कराया गया। मैं तो शर्मीली थी ही पर पन्तजी कम लजीले नहीं थे। उनकी कुछ कविताओं पर संकोच के साथ चर्चा हुई। फिर कुछ खुली मैं। मैंने अत्यन्त विनय के साथ उनसे अनुरोध किया कि वे अपने मुखारविन्द से कोई कविता सुना दें। मेरी यह प्रार्थना उन्हें स्वीकार न हुई। जाते-जाते उन्होंने इतना आश्वासन अवश्य दिया कि अगली बार वे अपने साथ नरेन्द्र शर्मा को लाएंगे। श्री नरेन्द्र शर्मा सस्वर जो काव्य पाठ करते हैं, वही सुनने योग्य है। ‘‘मेरी जो कविता आप सुनना चाहें उनके मुख से सुनवा दूँगा।” पन्त जी के ऐसे दर्शन पा मैं धन्य हो गई थी। यह सुअवसर बिर्जन की देन थी। कुछ महीने तक पन्तजी से पत्र व्यवहार हुआ। मैंने उन्हें एक बार लिखा था कि उनसे भेंट करना मेरे लिए तीर्थ-तुल्य था। पत्रों द्वारा मैं उनके सम्पर्क में रहूँ यह जीजाजी को सहन नहीं हुआ। अतः उनसे सम्पर्क की इति श्री। हाँ उनसे प्राप्त पत्रों का मुझ पर जो प्रभाव पड़ा, वह मेरी हैन्ड राइटिंग है। यह प्रभाव अमिट ही रहा। जैसा बता चुकी हूँ हिन्दी साहित्य समिति में मैं छात्राओं का प्रतिनिधित्व करती थी। प्रतिमास जाने-माने साहित्यकारों और मनीषियों से मिलने और उनकी बात सुनने का अवसर मिलता था। मैं श्री राहुल साँकृत्यायन से बहुत प्रभावित हुई – विशेषतः उनके उस वाक्य और विचार से जो उन्होंने मेरी ऑटोग्राफ बुक में लिखा थाः भूत मर गया, सड गया। भविष्य के निर्माण में लगो॥ अर्थ बड़ा सरल है किन्तु उत्सुकतावश मैंने इसी वाक्य को लेकर उनको पत्र लिखा। उन्होंने उत्तर दिया।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:09 AM.
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