Re: डायरी के पन्ने
इस प्रकार उनके साथ कुछ भी पत्रों का आदान-प्रदान हुआ। किसी लिफाफे पर नाम और पता जब किसी अजनबी का होता, वह खेला जाता। सैन्सर किया जाता। फलतः इस मनीषी से भी सम्पर्क टूट गया था। मेरी कायरता ही थी कि ऐसे पत्रों को मैं सहेजूँ। पर सहेजने से भी भयातुर थी। काश, आज भी वे मेरे संग्रह में होते। अभी एक बात ऐसी याद आ गई जो तुम्हें सम्भवतः अप्रासंगिक लगे। किन्तु लिख ही दूँ । जब मैं ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ रही थी विभिन्न विषयों के शिक्षक लैक्चर पद्धति से अध्यापन करते थे। सभी छात्र-छात्राएं नोट्स् उतारते किन्तु अक्षरशः नोट्स् केवल मैं ही लिखने में सक्षम थी। आशुलिपिक तो न तब थी न अभी हूँ किन्तु लेखनी बड़ी त्वरित गति से चला करती थी – चला करती है। हमारा एक सहपाठी था – शम्भूनाथ झा। उसके पिता, जीजाजी के मित्र या परिचित जो भी कह लो, थे। शम्भुनाथ ने एक दिन मेरी नोटस् की कॉपी देख ली। फिर क्या था वह प्रति सप्ताह घर पर आता जीजाजी यदि पहले मिल जाते उन्हीं से कहता- ‘मिथिलेश जी को बुला दीजिए उनके नोटस् लेने हैं।’ मैंने बड़े अनमनेपन से उसे दे दिया करती, पर इसी शर्त पर कि तीसरे दिन वह मुझे लौटा देगा। पर वह तीसरा दिन काहे को आता? उसके खास दोस्तों के बीच वह कॉपी घूमने लगती थी। परिणाम स्वरूप मुझे हर विषय की दो-तीन कॉपियां लेनी पड़ी थीं। इस भावी शिक्षक के आगमन के लिए जीजा का द्वार खुला था। टीटू यह प्रकरण दो किश्तों में पूरा किया गया है। दो दिन लगे। अन्यान्य निरर्थक कार्यों में दिन गुज़ारे इसीलिए।
Last edited by rajnish manga; 31-08-2013 at 10:25 AM.
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