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Old 12-07-2013, 05:16 PM   #11
VARSHNEY.009
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Default Re: यात्रा-संस्मरण

छान्गू झील, नाथू ला और बाबा मंदिर

अगली सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से नाथू–ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुए कि इतने पास आकर भी भारत–चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएँगे पर बारिश ने जहाँ नाथू–ला जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली वादियाँ के पहली बार दर्शन हो ही जाएँगे। इसी खुशी को मन में संजोए हुए हम छान्गू (या त्सेंग अब इसका उच्चारण मेरे वश के बाहर है, वैसे भूतिया भाषा में त्सेंग का मतलब झील का उदगम स्थल है) की ओर चल पड़े। ३७८० मीटर यानि करीब १२००० फीट की ऊँचाई पर स्थित छान्गू झील गंगतोक से मात्र ४० कि .मी .की दूरी पर है।

गंगतोक से निकलते ही हरे भरे देवदार के जंगलों ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप में वही निखार था। कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर ज़बरदस्त चढ़ाई थी। ३० कि.मी. पार करने के बाद रास्ते के दोनों ओर बर्फ के ढेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे लोगों के लिए बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी पर ये तो अभी शुरुआत थी। छान्गू झील के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला करने के लिए घुटनों तक लंबे जूतों और दस्तानों से लैस होना पड़ा। दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर तक जाना था जो कि नाथू–ला और जेलेप–ला के बीच स्थित है। ये मंदिर २३ वीं पंजाब रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो डयूटी के दौरान इन्हीं वादियों में गुम हो गया था। बाबा मंदिर की भी अपनी एक रोचक कहानी है जिसकी चर्चा हाल–फिलहाल में हमारे मीडिया ने भी की थी। छान्गू से १० कि .मी .दूर हम नाथू ला के इस प्रवेश द्वार की बगल से गुज़रे।

हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था। थोड़ी ही देर में हम बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की ज़बरदस्त भीड़ वहाँ पहले से ही मौजूद थी। मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही बर्फ थी। उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, ज़मीं पर बर्फ की दूधिया चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमें। विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुँचे।

हमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई। ऊँचाई तक गिरते पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली। कपड़ो की कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि पिघलती बर्फ धीरे–धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी क्या हालत रही वो आप समझ ही गए होंगे। खैर वापसी में भोजन के लिए छान्गू में पुनः रुके। भोजन में यहाँ के लोकप्रिय आहार मोमो का स्वाद चखा। भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये सुसज्जित याक अपने साथ तसवीर लेने के लिए पलकें बिछाए हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस याक का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियाँ कर। नतीजा आपके सामने है। अगला दिन गंगतोक में बिताया हमारा आखरी दिन था।

सिक्किम प्रवास के आखिरी दिन हमारे पास दिन के ३ बजे तक ही घूमने का वक्त था। तो सबने सोचा क्यों ना गंगतोक में ही चहलकदमी की जाए। सुबह जलपान करने के बाद सीधे जा पहुँचे फूलों की प्रदर्शनी देखने। वहाँ पता चला कि इतने छोटे से राज्य में भी ऑर्किड की ५०० से ज़्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिसमें से कई तो बेहद दुर्लभ किस्म ही हैं। इन फूलों की एक झलक हमें चकित करने के लिए काफी थी। भांति–भांति के रंग और रूप लिए इन फूलों से नज़रें हटाने को जी नहीं चाहता था। ऐसा खूबसूरत रंग संयोजन विधाता के अलावा भला कौन कर सकता है।

फूलों की दीर्घा से निकल हमने रोपवे की राह पकड़ी। ऊँचाई से दिखते गंगतोक की खूबसूरती और बढ़ गई थी। हरे भरे पहाड़ सीढ़ीनुमा खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर चलती चौकोर पीले डिब्बों जैसी दिखती टैक्सियाँ। रोपवे से आगे बढ़े तो सिक्किम विधानसभा भी नज़र आई। रोपवे से उतरने के बाद बौद्ध स्तूप की ओर जाना था। स्तूप की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम पसीने से नहा गए। इस स्तूप के चारों ओर १०८ पूजा चक्र हैं जिन्हे बौद्ध भक्त मंत्रोच्चार के साथ घुमाते हैं।

वापसी का सफ़र ३ की बजाय ४ बजे शुरू हुआ। गंगतोक से सिलीगुड़ी का सफ़र चार घंटे मे पूरा होता है। इस बार हमारा ड्राइवर बातूनी ज़्यादा था और घाघ भी। टाटा सूमो में सिक्किम में १० से ज़्यादा लोगों को बैठाने की इजाजत नहीं है पर ये जनाब १२ लोगों को उस में बैठाने पर आमादा थे। खैर हमारे सतत विरोध की वजह से ये संख्या १२ से ज़्यादा नहीं बढ़ पाई। सिक्किम में कायदा कानून चलता है और लोग बनाए गए नियमों का सम्मान करते हैं पर जैसे ही सिक्किम की सीमा खत्म होती है कायदे–कानून धरे के धरे रह जाते हैं। बंगाल आते ही ड्राइवर की खुशी देखते ही बनती थी। पहले तो सवारियों की संख्या १० से १२ की और फिर एक जगह रोक कर सूमो के ऊपर लोगों को बैठाने लगा पर इस बार सब यात्रियों ने मिलकर ऐसी झाड़ पिलाई की वो मन मार के चुप हो गया।

उत्तरी बंगाल में घुसते ही चाँद निकल आया था। पहाड़ियों के बीच से छन कर आती उसकी रोशनी तिस्ता नदी को प्रकाशमान कर रही थी। वैसे भी रात में होने वाली बारिश की वजह से चाँद हमसे लाचेन और लाचुंग दोनों जगह नज़रों से ओझल ही रहा था, जिसका मुझे बेहद मलाल था। शायद यही वजह थी कि चाँदनी रात की इस खूबसूरती को देख मन में एतबार साजिद की ये पंक्तियाँ याद आ रही थीं–
वहाँ घर में कौन है मुंतज़िर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुज़ार दो
कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं किसी कुंज–ए–गुल में उतार दो

चंद दिनों की मधुर स्मृतियों को लिए हमारा समूह वापस लौट रहा था कुछ अविस्मरणीय छवियों के साथ। उनमें एक छवि इस बच्चे की भी थी जिसे हमने चुन्गथांग में खेलते देखा था! सिक्किम के सफ़र का पटाक्षेप करने से पहले तहे दिल से सलाम हमारे ट्रेवेल एजेन्ट प्रधान को जिसने बंदगोभी की सब्जी खिला–खिला कर ना केवल १५,००० फीट पर भी हमारे खून में गर्मी बनाए रखी बल्कि रास्ते भर अपने हँसोड़ स्वभाव से माहौल को भी हल्का–फुल्का बनाए रखा।

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