View Single Post
Old 12-07-2013, 05:33 PM   #13
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 16
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

एक स्मृति-यात्रा महोबा होकर खजुराहो की
ग्रीष्मावकाश, ईस्वी सन् १९८०

`बारह बरस लौं कूकुर जीवे,
सोलह बरस लौं जिये सियार
अठारह बरस लौं छत्री जीवे,
आगे जीवन को धिक्कार ।`

डिंगल काव्य का यह बहुश्रुत दोहा मेरी साँसों में ऊभ-चूभ कर रहा है कानपुर से महोबा जाती बस के शोर के साथ-साथ।धुर बचपन में सुनी लोककाव्य आल्हा की अनूठी स्वर-लहरियाँ भी गूँज-अनुगूँज बन कर साँसों में व्याप रहीं हैं। महोबा जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा है, `आल्ह-खंड' के नायक-द्वय आल्हा और ऊदल के शौर्य के प्रसंग भी जैसे साकार होते जा रहे हैं। बुंदेलखंड की भूमि अप्रतिम शौर्य की भूमि रही है। उसमें भी झाँसी और महोबा का अपना अलग ही स्थान है।

उत्सुक-उत्कंठित हूँ मैं। बस की खिड़की से मैं देख रहा हूँ धरती की उन अनगढ़ ऊँची-नीची होतीं आदिम आकृतियों को, जिनमें पग-पग पर बिछी हैं अनन्त शौर्यगाथाओं की अनगिनत स्मृतियाँ। भारत के सामूहिक अवचेतन का जो हिस्सा मुझे मिला है, उनमें ये कथाएँ भी समोई हुई हैं।

महोबा आए हुए तीन दिन हो चुके हैं। भारत में मुस्लिम शासन के तुरन्त पूर्व के इतिहास के एक खंडावशेष को अवलोकने, उसके खंडहर हो चुके अस्तित्व को परखने का जो मौका मुझे मिला है, उससे मैं अभिभूत और असंतुष्ट, दोनों हूँ। राजपूत इतिहास की ढलती हुई प्रभा का साक्षी रहा है यह नगर भी। `पृथ्वीराजरासो' के महानायक पृथ्वीराज चौहान की राज्य-लिप्सा एवं उसके शौर्य का, उससे उपजे जन-संहार का भी। दिल्ली के रायपिथौरा के खंडहरों से मैं उस उत्कट राजपूत महानायक की शौर्य-गाथा सुन चुका था। आल्हा-ऊदल की इस वीरभूमि ने उसके महानायकत्व को चुनौती दी थी। महोबा का किला तो साधारण-सा ही, किंतु उसे विशिष्टता प्रदान कर रहीं थीं मेरी कल्पना में उभरतीं कृपाण एवं कंकण-किंकिण की मिली-जुली ध्वनियाँ और शौर्य तथा सौन्दर्य की जीवंत होतीं आकृतियाँ। कभी आल्हा-ऊदल इसी भूमि पर विचरे होंगे। इन्हीं छोटी-छोटी बीहड़ पहाड़ियों में उनके घोड़ों की टापों की, उनकी युद्धोन्मुख ललकारों की, उनके शस्त्रों-शिरस्त्राणों-कवचों की झंकारों की गूँज भरी होगी। आज सब कुछ शांत है। मन विचरण कर रहा है और मैं उदास हो गया हूँ मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं के बारे में सोचकर। हमारा यह जो आज है, यह भी तो कभी अतीत हो जाएगा इसी तरह।

महोबा एक छोटा-सा शहर है। मेरे पैतृक-स्थान लखनऊ के मुकाबले में बहुत ही छोटा। छोटा-सा ही है हाट-बाज़ार, जिसका प्रमुख आकर्षण है पान की मंडी। हाँ, महोबा आज पान के उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है।पान का एक खेत मैं भी देख आया हूँ छोटे भाई महेन्द्र के साथ। महेन्द्र यहाँ पी०डब्ल्यू०डी० में इंजीनियर है। उसी के पास हम आये हैं, हम यानी मैं, पत्नी सरला और हमारे दोनों बच्चे, अपर्णा और राहुल। महेन्द्र की पत्नी मिलनसार, हंसमुख और स्नेहिल है, एक कुशल गृहिणी भी। उनके दो छोटी-छोटी प्यारी-सी बेटियाँ हैं- हमारे लिए यहाँ आने का एक विशेष आकर्षण। ग्रीष्मावकाश में हम सुदूर हरियाणा के हिसार शहर से पितृगृह लखनऊ हर वर्ष आते हैं। महेन्द्र और उसका परिवार अबकी बार हमसे मिलने वहाँ नहीं आ सके। इसीलिए हम आ गये। साल भर में एक बार अपने सभी आत्मीयों-प्रियजनों से मिलकर उनके स्नेह की ऊर्जा संजोने का यह सुयोग ही हमें अगले ग्रीष्मावकाश तक सक्रिय रखता है।

पिछले तीन दिनों में मैंने पूरा महोबा छान मारा है। बाज़ार तो सिर्फ एक दिन सभी के साथ गया था। पान की मंडी देखकर मैं चकित रह गया। पूरा एक महाहाट। हाँ, यहाँ का पान पूरे उत्तर भारत में जाता है। नवीं शताब्दी के चंदेल राजा राहिला द्वारा निर्मित सूर्यमंदिर अनूठा लगा। भारतभूमि पर कुछ गिने-चुने ही मंदिर हैं सूर्य के। सूर्य को एकमात्र जाग्रत देवता कहा गया है शास्त्रों में। इसीलिए संभवत: उनके प्रतिमा-विग्रह के पूजन का चलन कम ही रहा है। महोबा नगर की जल-आपू़र्ति हेतु जिन कीरत सागर, विजय सागर, मदन सागर नाम के तीन महातालों का निर्माण चंदेल-प्रतिहार राजाओं ने करवाया था, उन्हें भी देख आये हैं हम। जल-संरक्षण एवं जल-आपूर्ति की यह व्यवस्था अपने समय में यानी ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में सचमुच अनूठी-अद्भुत रही होगी। हमारे धर्मग्रन्थों में ताल-कुएँ-बावड़ी बनवाने को एक महापुण्य माना गया है। अंग्रेजी शासन में और उसके बाद इन पारंपरिक जल-संरक्षण प्रविधियों के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। इसी से पानी की भयंकर समस्या आज पैदा हो रही है। महोबा की गोरख पहाड़ी भी ऐतिहासिक है। कहते हैं नाथपंथ के बाबा गोरखनाथ ने यहाँ कुछ काल तक वास किया था और यह एक सिद्धभूमि है। आज भी यहाँ गुरू गोरखनाथ के अनुयाइयों का हर वर्ष जमावड़ा होता है।

सुबह घूमने जाने की मेरी आदत है। यहाँ भी सुबह तड़के ही निकल जाता हूँ मैं आसपास की पहाड़ियों पर चढ़ने-उतरने। धरती की उतार-चढ़ाव वाली ऊबड़-खाबड़ संरचना मुझे सदैव ही लुभाती रही है। महोबा के पहाड़ काफी टूटे-फूटे हैं। चढ़ते-उतरते तमाम छोटे-छोटे पत्थर बिखरे दीखते हैं। एक दिन एक अज़ीब बात हुई। मेरे दोनों बच्चे, महेन्द्र की बड़ी बेटी शालू भी साथ थे। अचानक मेरी नज़र एक पत्थर पर पड़ी। छोटा-सा बेडौल तिकोना पत्थर। उसके उभरे-हुए तल पर मुझे एक आकृति दिख गई थी। बच्चों को मैंने वह पत्थर दिखाया। उन्हें उसमें कुछ भी नहीं दिखा। घर पर सरला, महेन्द्र और पुष्पा को भी उसमें कुछ नहीं दिखा। मैंने शालू के कलर-बॉक्स से काला रंग लेकर उसमें छिपी आकृति को उभार दिया। अब सभी को वह दिखने लगी। बाद में मैंने उसे शीर्षक दिया- `कंकाल का वीणा-वादन'। हाँ, महोबा के कंकाल हुए इतिहास का अनन्त वीणा-वादन उसमें अंकित था। हर अतीत की गूँज ऐसी ही तो होती है। सुरीली किंतु मृत्यु की झंकृति से भरी हुई। वह पत्थर आज भी मेरे ड्राइंग रूम में टंगा इतिहास की उस यात्रा की सुखद स्मृतियों से मुझे जोड़ता रहता है। जीवन की जिज्ञासा और मृत्यु के अतीन्द्रिय रहस्य से भी।

महोबा से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है चरखारी, जिसे `बुदेलखंड का कश्मीर' कहा जाता है। यह एक खूबसूरत रियासत नगर है। इसे बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मदनशाह और वंशियाशाह नामके दो भाईयों को उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर जागीर के रूप में दिया था। इसका प्राचीन नाम मांडवपुरी था। कहते हैं मांडव ऋषि का आश्रम यहीं पर था। इसे मिनी-वृंदावन की मान्यता भी प्राप्त है।यहाँ भगवान कृष्ण के कई मंदिर हैं, जिनमें गुमान बिहारी मंदिर और गोवर्धन मंदिर की विशेष ख्याति है। कार्तिक मास में यहाँ गोवर्धन मेला का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के क्षेत्र से बड़ी संख्या में भक्तजन एकत्रित होते हैं। यहाँ का कालीमाता का मंदिर भी दर्शनीय है। चरखारी एक रमणीय स्थान है। रतन सागर, कोठी ताल और टोला ताल के साथ लगभग ६०३ फीट की ऊँचाई वाले इस स्थान की शोभा देखते ही बनती है। मुलिया पहाड़ी पर स्थित चरखारी का किला, जिसे मंगलगढ़ कहा जाता है, लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व बनवाया गया था। काफी ऊँचा है यह किला। इसमें प्रवेश करते ही मुझे रोमांच हो आया। इतिहास और काल के व्यतीत का आतंक मेरे मन-प्राण पर छा गया। हम कल तीसरे पहर यहाँ के पी०डब्ल्यू०डी० के रेस्टहाउस में आ गए थे। आज पूरा दिन चरखारी में बिताकर भी मन की संतुष्टि नहीं हो पाई। पर लौटना तो था ही। कल सोमवार है और महेन्द्र को ऑफिस जाना है।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote