Re: मेरी रचनाएँ-3- दीपक खत्री 'रौनक'
कर ले वो गर कबूल तो मुश्किलें आसान है
इश्क का मौल जैसे जवाहरातों की खान है
कोई भुला ही दे तो क्या कहे उस खूबी को
ना याद हो उसे कि वो किसी कि जान है
बहुत दिल फरेब है उसके हुश्न के जलवे
जानलेवा है अदाए लेकिन वो अनजान है
देती है इशारा वो क्या खूब मेरी बर्बादी का
हो भी जाऊ बर्बाद उसका मुझपे अहसान है
वो औरों से बहुत मुखातिब है मुझे जलाने को
जानती है मगर कि ये कोशिश राएगान (बेकार) है
चमक का दारोमदार है हुनर पर 'रौनक'
परतों से आफ़ताब के जर्रे मे जान है
दीपक खत्री 'रौनक'
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