पिता के घर पहुँचने पर केवल माता और बहनें ही उनसे प्रेम से मिलीं। किन्तु किसी ने भी सती जी का सत्कार नहीं किया। पिता ने तो सती से कुशल क्षेम भी नहीं पूछा उल्ट उन्हें देख कर दक्ष के अंग प्रत्यंग जल उठे। सती ने देखा कि उस यज्ञ में शिव जी का भाग भी नहीं रखा गया था। यह सब देख कर सती को पति के कथन का महत्व समझ में आया और उन्हें घोर पश्चाताप होने लगा। स्वामी के अपमान से उनका हृदय दग्ध हो उठा। क्रोध में भरकर उन्होंने कहा कि हे सभासदों और मुनीश्वरों! त्रिपुर दैत्य का वध करने वाले अविनाशी महेश्वर कि निन्दा करने वालों को उसका तत्काल फल मिलेगा। मैं चन्द्रमा को अपने ललाट पर धारण करने वाले अपने पति वृषकेतु शिव जी को अपने हृदय में धारण कर के तत्काल ही अपने इस शरीर का त्याग कर दूँगी। इतना कह कर सती जी ने योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म कर डाला। यज्ञशाला में हाहाकार मच गया।
सती जी की मृत्यु का समाचार ज्ञात होने पर शिव जी के मुख्य गणों ने यज्ञ का विध्वंस करना आरम्भ कर दिया। मुनीश्वर भृगु ने जब यज्ञ की रक्षा की तो महादेव जी ने क्रोध कर के वीरभद्र को वहाँ भेज दिया जिसने यज्ञ का पूर्ण विध्वंस कर के देवताओं को यथोचित दण्ड दिया।