जश्ने-जम्हूरी हमें यूं भी मनाना चाहिये
क़ौमी यकजहती का इक सूरज उगाना चाहिये
दर्द तेरे ज़ख्म का उभरे मेरे दिल में अगर
आंख में तेरी, मेरा आंसू भी आना चाहिये
वो जो कल बिस्मिल भगत अशफाक़ के सीनों में था
नौजवानों में वही जज़्बा पुराना चाहिये
फिर यहां टैगोर का गूंजे फिज़ां में राष्ट्रगान
फिर यहां इक़बाल का क़ौमी तराना चाहिये
साज़िशों से जो झुकाना चाहते हैं, अब उन्हें
और ऊंचा ये तिरंगा कर दिखाना चाहिये