Re: मेरा जीवन
बहुत वर्ष पहले कि बात कर रहा हूँ. उन दिनों रसोईघर में गैस इस्तेमाल नहीं होती थी और न ही गैस लाइटर मार्केट में आये थे. माचिस का प्रयोग आम था. आदतन जब हम माचिस उठाते थे तो उसे हिला कर निश्चिन्त हो जाते थे कि इसमें तीलियाँ हैं. यदि आवाज नहीं होती थी तो समझ लेते थे कि उसमे तीलियाँ नहीं हैं अर्थात् माचिस खाली है. एक बार ऐसे ही अवसर पर मैंने माचिस उठाई और उसे हिला कर देखा. उसमे से तीलियों की आवाज नहीं आयी. एक-दो बार फिर किया तो भी आवाज नहीं आयी. यद्यपि माचिस को हाथ में उठाने से आभास हो रहा था कि उसमे तीलियाँ हैं. मैंने माचिस को खोल कर देखा तो पाया कि माचिस तीलियों से इतनी खचाखच भरी हुई थी कि तीलियाँ हिलने की कोई गुंजाइश नहीं थी. उस दिन मन में यह विचार आया कि माचिस चाहे बिल्कुल खाली हो या एकदम भरी हो दोनों स्थितियों में हिलाने पर आवाज नहीं करती. इसने एक नियम की शक्ल अख्तियार कर ली:
मूढ़ व्यक्ति और अत्यंत ज्ञानी व्यक्ति का तब तक हमें अंदाजा नहीं लगता जब तक कि उसके भीतर क्या है, यह न देखा जाये यानी किसी विषय पर उनके विचार न सुने जायें.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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